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________________ प्रमाद] मोक्षमाला स्त्री अनेक प्रकारकी उपाधि मचा रहे हैं, दुःखदायी पुत्र और पुत्री खाऊँ खाऊँ कर रहे हैं । अरे रायचन्द्र ! तो भी यह जीव उधेड बुन किया ही करता है और इससे तृष्णाको छोड़कर जंजाल नहीं छोड़ी जाती ॥ ३॥ नाड़ी क्षीण पड़ गई, अवाचककी तरह पड़ रहा, और जीवन-दीपक निस्तेज पड़ गया। एक भाईने इसे अंतिम अवस्थामें पड़ा देखकर यह कहा, कि अब इस बिचारेकी मिट्टी ठंडी हो जाय तो ठीक है । इतने पर उस बुढेने खीजकर हाथको हिलाकर इशारेसे कहा, कि हे मूर्ख ! चुप रह, तेरी चतुराईपर आग लगे। अरे रायचन्द्र ! देखो देखो, यह आशाका पाश कैसा है ! मरते मरते भी बुझेकी ममता नहीं मरी ॥ ४ ॥ ५० प्रमाद धर्मका अनादर, उन्माद, आलस्य, और कषाय ये सब प्रमादके लक्षण हैं । __ भगवान्ने उत्तराध्ययनसूत्रमें गौतमसे कहा है, कि हे गौतम ! मनुष्यकी आयु कुशकी नोकपर पड़ी हुई जलके बून्दके समान है। जैसे इस बून्दके गिर पड़नेमें देर नहीं लगती, उसी तरह इस मनुष्य-आयुके बीतनमें देर नहीं लगती । इस उपदेशकी गाथाकी चौथी कड़ी स्मरणमें अवश्य रखने योग्य है-'समयं गोयम मा पमायए। इस पवित्रं वाक्यके दो अर्थ होते हैं । एक तो यह, कि हे गौतम ! समय अर्थात् अवसर पाकरके प्रमाद नहीं करना चाहिये; और दूसरा यह कि क्षण क्षणमें बीतते जाते हुए कालके असंख्यातवें भाग अर्थात् एक समयमात्रका भी प्रमाद न करना चाहिये, क्योंकि देह क्षणभंगुर है । काल-शिकारी सिरपर धनुष बाण चढ़ाकर खड़ा है । उसने शिकारको लिया अथवा लेगा बस यही दुविधा हो रही है। वहाँ प्रमाद करनेसे धर्म-कर्तव्य रह जायगा। अति विचक्षण पुरुष संसारकी सर्वोपाधि त्याग कर दिन रात धर्ममें सावधान रहते हैं, और पलभर भी प्रमाद नहीं करते । विचक्षण पुरुष अहोरात्रके थोड़े भागको भी निरंतर धर्म-कर्तव्यों बिताते हैं, और अवसर अवसरपर धर्म-कर्तव्य करते रहते हैं । परन्तु मूढ़ पुरुष निद्रा, आहार, मौज, शौक, विकथा तथा राग रंगमें आयु व्यतीत कर डालते हैं । वे इसके परिणाममें अधोगति पाते हैं । जैसे बने तैसे यतना और उपयोगसे धर्मका साधन करना योग्य है। साठ घड़ीके अहोरात्रमें बीस घड़ी तो हम निद्रामें बिता देते हैं । बाकीकी चालीस घड़ी उपाधि, गप शप, और इधर उधर भटकनेमें बिता देते हैं । इसकी अपेक्षा इस साठ घड़ीके वक्तमेंसे दो चार घड़ी विशुद्ध धर्म-कर्तव्यके लिये उपयोगमें लगावें तो यह आसानीसे हो सकने जैसी बात है । इसका परिणाम भी कैसा सुंदर हो! पल अमूल्य चीज है । चक्रवर्ती भी यदि एक पल पानेके लिये अपनी समस्त ऋद्धि दे दे तो पितृ अने परणी ते, मचावे अनेक धंध, पुत्र, पुत्री भाखे खाउँ खाउं दुःखदाईने, अरे! राज्यचन्द्र तोय जीव झावा दावा करे, जंजाळ छंडाय नहीं तजी तृषनाईने ॥ ३ ॥ थई क्षीण नादी अवाचक जेवो रह्यो पदी, जीवन दीपक पाम्यो केवळ संखाईने; छेल्ली इसे पज्यो भाळी भाईए त्यां एम भाल्यं, हवे टाढी माटी थाय तो तो ठीक भाईने । हाथने हलावी त्यां तो खीजी बुढे सूचब्यु ए, बोल्या विना देश बाळ तारी चतुराईने ! अरे राज्यचन्द्र देखो देखो आशापाश केवो ! जतां गई नहीं डोशे ममता मराईने ! ॥ ४ ॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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