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________________ शानियोंने वैराग्यका उपदेश क्यों दिया !] मोक्षमाला . संसारकी दिखती हुई इन्द्रवारणाके समान सुंदर मोहिनीने आत्माको एकदम मोहित कर डाला है । इसके समान सुख आत्माको कहीं भी नहीं मालूम होता । मोहिनीके कारण सत्यसुख और उसका स्वरूप देखनेकी इसने आकांक्षा भी नहीं की। जिस प्रकार पतंगकी दीपकके प्रति मोहिनी है, उसी तरह आत्माकी संसारके प्रति मोहिनी है । ज्ञानी लोग इस संसारको क्षणभर भी सुखरूप नहीं कहते । इस संसारकी तिलभर जगह भी जहरके विना नहीं रही । एक सूअरसे लेकर चक्रवर्तीतक भावकी अपेक्षासे समानता है। अर्थात् चक्रवर्तीकी संसारमें जितनी मोहिनी है, उतनी ही बल्कि उससे भी अधिक मोहिनी सूअरकी है । जिस प्रकार चक्रवर्ती समग्र प्रजापर अधिकारका भोग करता है, उसी तरह वह उसकी उपाधि भी भोगता है। सूअरको इसमेंसे कुछ भी भोगना नहीं पड़ता । अधिकारकी अपेक्षा उलटी उपाधि विशेष है । चक्रवर्तीको अपनी पत्नीके प्रति जितना प्रेम होता है, उतना ही अथवा उससे अधिक सूअरको अपनी सूअरनीके प्रति प्रेम रहता है । चक्रवर्ती भोगसे जितना रस लेता है उतना ही रस सूअर भी माने हुए है । चक्रवर्तीके जितनी वैभवकी बहुलता है, उतनी ही उपाधि भी है । सूअरको इसके वैभवके अनुसार ही उपाधि है । दोनों उत्पन्न हुए हैं और दोनोंको मरना है। इस प्रकार सूक्ष्म विचारसे देखनेपर क्षणिकतासे, रोगसे, जरा आदिसे दोनों प्रसित हैं। द्रव्यसे चक्रवर्ती समर्थ है, महा पुण्यशाली है, मुख्यरूपसे सातावेदनीय भोगता है, और सूअर बिचारा असातावेदनीय भोग रहा है । दोनोंके असाता और साता दोनों हैं । परन्तु चक्रवर्ती महा समर्थ है। परन्तु यदि यह जीवनपर्यंत मोहांध रहे तो वह बिलकुल बाजी हार जानेके जैसा काम करता है। सूअरका भी यही हाल है । चक्रवर्तीके शलाकापुरुष होनेके कारण सूअरसे इस रूपमें इसकी बराबरी नहीं, परन्तु स्वरूपकी दृष्टि से बराबरी है । भोगोंके भोगनेमें दोनों तुच्छ हैं, दोनोंके शरीर राद, माँस आदिके हैं, और असातासे पराधीन हैं । संसारकी यह सर्वोत्तम पदवी ऐसी है; उसमें ऐसा दुःख, ऐसी क्षणिकता, ऐसी तुच्छता, और ऐसा अंधपना है, तो फिर दूसरी जगह सुख कैसे माना जाय ? यह सुख नहीं, फिर भी सुख गिनो तो जो सुख भययुक्त और क्षणिक है वह दुःख ही है । अनंत ताप, अनंत शोक, अनंत दुःख देखकर ज्ञानियोंने इस संसारको पीठ दिखाई है, यह सत्य है । इस ओर पीछे लौटकर देखना योग्य नहीं । वहाँ दुःख ही दुःख है । यह दुःखका समुद्र है। वैराग्य ही अनंत सुखमें ले जाने वाला उत्कृष्ट मार्गदर्शक है। ५३ महावीरशासन आजकल जो जिन भगवान्का शासन चल रहा है वह भगवान् महावीरका प्रणीत किया हुआ है । भगवान् महावीरको निर्वाण पधारे २४०० वर्षसे ऊपर हो गये । मगध देशके क्षत्रियकुंड नगरमें सिद्धार्थ राजाकी रानी त्रिशलादेवी क्षत्रियाणीकी कोखसे भगवान् महावीरने जन्म लिया था। महावीर भगवान्के बड़े भाईका नाम नन्दिवर्धमान था। उनकी स्त्रीका नाम यशोदा था । वे तीस वर्ष गृहस्थाअममें रहे । इन्होंने एकांत बिहारमें साढ़े बारह वर्ष एक पक्ष तप आदि सम्यक् आचारसे सम्पूर्ण घनघाति कर्मोको जलाकर भस्मीभूत किया; अनुपमेय केवलज्ञान और केवलदर्शनको ऋजुवालिका नदीके किनारे प्राप्त किया; कुल लगभग बहत्तर वर्षकी आयुको भोगकर सब कर्मोको भस्मीभूत कर सिद्धस्वरूपको प्राप्त किया । वर्तमान चौबीसीके ये अन्तिम जिनेश्वर थे।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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