SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४ [हिन्दी-गद्य-निर्माण प्रह्लाद आदि मध्यावस्था के उद्धव, पारुणि परीनितादिक और नवीन काल के वैष्णवाचार्यों के खान-पान, रहन-सहन उपासना-रीति, वाह्य,-चिन्ह श्रादि में कितना अन्तर पड़ा है, किन्तु इतना ही कहा जा सकता है कि विष्णु उपासना का मूल सूत्र यति प्राचीनकाल से अनविच्छिन्न चला आता है। ध्रुव, प्रह्लादादि वैष्णव तो थे, किन्तु अब के वैष्णवों की भांति कंठी, तिलक, मुद्रा लगाते थे और मांस आदि नहीं खाते थे, इन बातों का विश्वस्त प्रमाण नहीं मिलता। ऐसे ही भारतवर्ष में जैसी धर्म रुचि अव है उससे स्पष्ट होता है कि आगे चलकर वैष्णव मत में खाने-पीने का विचार छूटकर बहुत-सा अदल-बदल अवश्य होगा । यद्यपि अनेक प्राचार्यों ने इसी आशा से मत प्रवृत्त किया कि इसमें सब मनुष्य समानता लाभकर और परस्पर खानपानादि से लोगों में एक्य बढ़े और किसी जातिवर्ण देश का मनुष्य क्यों न हो वैष्णव . • पंक्ति में आ सके, किन्तु उन लोगों की उदार इच्छा भली-भांति पूरी नहीं हुई, क्योंकि रमार्तमत की और ब्राह्मणों की विशेष हानि के कारण इस मत के लोगों ने उस समुन्नत भाव से उन्नति को रोक दिया, जिसमे अव वैष्णवों में छुवाछुत सब से बढ़ गया । वहुदेवोपासकों की घृणा देने के अर्थ वैष्वाण तिरिक्त और किसी का स्पर्श वचाते वहाँ तक एक बात थी, किन्तु अब तो वैष्णवों ही मे ऐसा उपद्रव फैला है कि एक सम्प्रदाय के वैष्णव दूसरे सम्प्रदाय वाले की अपने मदिर में और खान-पान में नहीं लेते और 'सात कनौजिया नौ चूल्हे नाली मसाल हो गई है। किन्तु काल की वर्तमान गति के अनुसार यह लक्षण उनकी अवनति के हैं । इस काल मे तो इसकी तभी उन्नति होगी जव इसके वाह्य व्यवहार और अाडम्बर में न्यूनता होगी और एकता, वटाई जायगी और अान्तरिक उपासना की उन्नति की जायगी । यह काल ऐसा है कि लोग उसी मन को विशेष मानेंगे जिसमे वाह्यदेहबष्ट न्यून हो । यद्यपि वैष्णव धर्म भारतवर्ष का प्रकृन धर्म है इस हेतु उसकी ओर लोगों की रूचि होगी, किन्तु उसमें अनेक संस्कारों की अतिशय अावश्यकता है । प्रथम तो गोस्वामीण अपना रजोगुणी तमोगुणी स्वभाव छोड़ेंगे तय काम चलेगा। गुरु लोगों में एक तो विद्या ही नहीं होती, जिसके
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy