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________________ प्रायश्चित्त-समुच्चय । और गुरु बत्तीस जगह लिखे गये हैं। अब अतसंक्रमण विधि बताते हैं'पढमक्खे अंतगए आदिगए संकमैइ विदियक्खो। दोणि पि गतूर्णतं आइगए संकसैइ तइयक्खो ॥ अर्थात् प्रियधर्म और अप्रियधर्म यह प्रथमान, बहुश्रुत ओर अबहुश्रुत यह द्वितीयाक्ष, सहेतुक और अहेतुक यह तृतीय अक्ष: सकृत्कारी और असकृत्कारो यह चतुर्थ अक्ष तथा ऋजुभाव और अनुजुभाव यह पंचमाक्ष है। इनमेंस प्रथमाक्ष संचरण करता हुआ अपने अन्तके भेद अप्रियधर्मको प्राप्त होकर और वापिस लौट कर जब पहले प्रियधर्म पर आता है तब द्वितीय अक्ष बहुश्रुतको. छोड़कर अबहुश्रुतमें संचरण करता है फिर उस द्वितीयके वहीं पर स्थित रहते हुए जब प्रथमात अंतका पहुँच जाता है तब प्रथमाक्ष और द्वितीयान अंतको पहुँच कर और लौट कर जव आदिको आते हैं तब तृतीयाक्ष सहेतुकको छोडकर अहेतुकमें संचरण करता है फिर इस अनके यही स्थित रहते हुए प्रथमात और द्वितीयाक्ष दोनों संचरण करते हुए अंतको पहुंच जाते हैं तव तीनों अक्ष अन्तको पहुंचकर और लौटकर जब आदि स्थानको आते हैं तव चतुर्यात सकृकारीको छोड़कर असक कारीमें संक्रमण करता है फिर उस अतके यही स्थित रहते दुए प्रथमात द्वितीयाक्ष ओर तृतीयाक्ष तोनों संचरण करते हुए अंतको पहुंच जाते हैं तब चारों अक्ष अन्तको पहुंच कर और
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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