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________________ पुरुषाधिकार। १३ परिहार मायश्चित्त करनेवाला में परिहार प्रायश्चित्त करनेवाला हूं यह जतानेके लिए आगे पिच्छिका दिखाता है इसलिए परिहार प्रायश्चित्तको पिंछ प्रायश्चित्त कहते हैं। छेद नाम दीक्षा छेदनेका है और मूल नाम पुनः दोक्षा धारण करनेका है ।।१५६॥ प्रियधर्मा बहुज्ञानः कारणावृत्यसेवकः। ऋजुभावो विपक्षस्तकिर्द्वात्रिंशदाहताः॥१५॥ अर्थ-प्रियधर्म-धर्ममें प्रेम रखने वाला, बहुज्ञान-शास्त्रोंका ज्ञाता, बहुश्रुत, कारणी-व्याधि उपसर्ग आदि कारणोंवश दोषोंका सेवन करनेवाला-सहेतुक, आत्यसेवक- एक वार दोष सेवन करनेवाला अर्थात् सकृत्कारी, ऋजुभाव-- सरल स्वभावी इन पांचोंको पांच स्थानों में एक एक अङ्कके आकारमें स्थापना करें। तथा इनके विपक्षी अप्रियधर्म, अबहुश्रुत, अहेतुक, असकृत्कारी और अनुजुभाव इन पांचोंको दो दो अङ्कके आकारमें उनके नीचे स्थापन करें। इस तरह स्थापन कर परस्पर गुणनेस ३२ मन हो जाते हैं। यहां पर भी 'पहलेकी तरह संख्या, मस्तार, अक्षसंक्रमण, नष्ट और उद्दिष्ट ये पांच मकार समझाने चाहिये। प्रथम संख्याविधि बताते हैं। सव्वेपि पुन्वभंगा उवरिमभंगसु एक्कमक्के । मेलंतित्तिय कमसो गुणिये उप्पज्जये संखा ॥ अर्थाद पहले पहलेके भंग ऊपर ऊपरके एक एक भंगमें पाये
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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