SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रायश्चित-समुच्चय। -~ पंचदोषोपसृष्टस्य पारंचिकमनूदितं । ... व्युत्सृष्टो विहरेदेष सधर्मरहितक्षितौ ॥१५॥ अर्थ-तीर्थंकरासादनादि पांच दोपां कर संयुक्त पुरुपके लिए पारंचिक प्रायश्चित्त कहा गया है। तथा संघसे बाहर किया गया यह पापंचिक प्रायश्चित्तवाला पुरुष जिस देशमें. साधर्मी नहीं हैं उस देशमें विहार करे ॥ १५४॥ आदिसंहननो धीरो दशपूर्वकृतश्रमः। जितनिद्रो गुणाधारस्तस्य पारंचिकं विदुः।१५५। अर्थ-जिसके वज्रपभनाराच नामका पहला संहनन है जो धैर्यवान् है, दशपूर्वका ज्ञाता और व्याख्याता है, निद्राविजयी है और सम्पूर्ण गुणोंका आधार है उसके पारंचिक प्रायश्चित्त कहा गया है ॥ १५५॥ आयायाः स्यात्तपः सर्वं स्थापनापरिवर्जित। सप्तमासमपि प्राज्यं न पिछच्छेदमूलगं ॥१५६॥ __अर्थ-आर्यिकाको स्थापनारहित सभी प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। तथा सप्तमास प्रायश्चित्त भी आर्यिकाको देवे । यद्यपि वर्ध:मान स्वामीके तीर्थामें छह माससे ऊपर उपवासादि प्रायश्चित्त । नहीं हैं तो भी सप्तमाससे अधिक प्रायश्चित्त आर्यिकाको देवे , तथा पिछ छेद और मूल ये तीन प्रायश्चित्त उसको नहीं देना चाहिए। भावार्थ-पिंछ नाम परिहार प्रायश्चित्तका है क्योंकिः
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy