SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . :'.. . . संज्ञांधिकार । . . ७ • 'आगे भिन्नमासका लक्षण बताते हैं:पंचखथापनीतेषु भिन्नमासः स एव वा। उपवासैस्त्रिभिः षष्ठमपि कल्याणकं भवेत् ॥१०॥ ___ अर्थ-एक आचाम्ल, एक निर्विकृति, एक पुरुमंडल; एक एकस्थान ओर एक उपवास ये पांच कम कर देने पर वही ऊपर कहा हुआ गुरुमास भिन्नपास हो जाता है। तथा तीन उपवासोंका एक षष्ठ होता है और कल्याणक भी होता है। भावार्थ-निर्विकृति, पुरुमंडल, आचाम्ल, एकस्थान और क्षमण इनको एक कल्याण कहते हैं ऐसे पांच कल्याणोंका एक पंचकल्याण होता है। यथा- . . . णिबियडी पुरिमंडलमायाम एयठाण खमणमिदि। कल्लाणमेगभेदेहि पंचहिं पंचकल्लाणं ॥ - इस गाथाका अर्थ ऊपर आ गया है। इन्हीं पंचकल्याणोंमेंसे एक कल्याण कम कर देने पर भिन्नमास हो जाता है अर्थात चार कल्याणकका एक भिन्नमास होता है अथवा चार प्राचाम्ल, चार निर्विकृति, चार पुरुमंडल, चार एकस्थान और चार क्षमण इनको मिन्नमास कहते हैं। छठी भोजनको वेलामें पारणा करना पष्ठ है। अर्थात् एक दिनमें दो भोजनकी वेला होती हैं। -गाऊण पुरिससत्त चित्तं चयधिगाथरत्तच ! एकनिय कलाणं श्रवणोद भिण्णमाला से
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy