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________________ प्रापत्रि-समुचंद। शुद्धोऽभिवंदमानोऽपि पार्श्वस्थगणिनं गणी। शेषानपि च शेषाश्च संघे श्रुत्पथ मासिकं ॥११०॥ अर्य-सदाचारी प्राचार्य पार्श्वस्थ प्राचार्यको नमस्कार करता हुआ भी शुद्ध-निर्दोष है और प्राचार्यको छोड़कर अन्य मुनि भी पार्श्वस्थ मुनियोंको वंदना करते हुए पवित्र हैं । अथवा भारी जनसमुदायके जुड़ने पर शास्त्र ग्रहण करे या शास्त्र-श्रवणको छोड़कर यदि सब मुनि पार्श्वस्थ मुनिको नमस्कार करे तो उस सन्मुनिको मासिक प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥ ११०॥ स्नेहमुत्पादयन् कुर्यात् सुवाग्भिधर्मभाषणं । राजरक्षिकतत्साये संशुद्धोगणरक्षणात् ॥ १११॥ ___ अर्थ-संघको रक्षाके निमित्त, स्नेह उत्पन्न कराते हुए, राजा, कोट्टपाल, तत्माय शब्दसे तत्सदृश सेनापति, पुरोहिता मंत्री आदिको नर्म-सुपधुर भाषणों द्वारा यदि धर्मोपदेश दे तो निर्दोष है ।। १११॥ अभ्युत्थाने भिगंयादौ सागारेष्वन्यालिंगिषु। दीक्षादिकारणाच्छुद्धो गौरवान्मासमृच्छति॥ .. अर्थ-आसनसे उठ कर खड़ा होना, सामने आना, बैठनेको आसन देना, सन्मान करना, अपना "मुख प्रफुलित बनाना, मुखको मुसकराहट द्वारा अपना भान्तरंगिक भाव व्यक्त करना मधुर वचन बोलना इत्यादि उपचार विनय
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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