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________________ प्रतिसेवाधिकार ।' अधिकारी नहीं है। तथा गृह-पति, आदि शब्दसे दानपतिका प्रासुकद्रव्यसे वैयात्य करनेवाला भो निर्दोष है -अतः प्रायश्चित्तका भागी नहीं है। शय्यागार शब्दका अर्थ गृहपति है। गृहपति शब्दसे वह गृहपति समझना चाहिए जिसके कि मकानमें ठहरे हुए हैं ।। १०७॥ अन्यतीर्थिगृहस्थेषु श्रावकज्ञातिकादिषु । वैयावृत्त्ये कृते शुद्धोयदि संयमसन्मुखः ॥१०॥ अर्थ-कापालिक आदि गृहस्थोंका, सम्यग्दृष्टि श्रावकोंका; अपने खजनोंका, भादि शब्दसे औरोंका भी वैयावत्य करने पर यदि वह वैयारत्य करनेवाला संयम पालनेमें तत्पर है तो शुद्ध है-मायश्चित्तका भागी नहीं है ॥ १०८॥ अभ्युत्थास्यत्ययं हीति ज्ञात्वा पार्श्वस्थकादिकैः। समाचरन् शुचिः स्तोकं सर्वसंभोगभागपि ॥ . अर्थ-यह आसनसे उठकर खडा होगा ऐसा समझ कर पार्श्वस्थ, कुशील, अवसन, मृगचारी और संसक्त इन पांचोंके साथ उचित व्यवहार या समान भाचरण करनेवाला साधु पवित्र है, निर्दोष है-पायश्चित्तका भागी नहीं है तथा खल्पकाल पर्यंत विनय वंदना खाध्याय आदि करता हुआ भी. पवित्र है। अनन्तर यदि वे पार्व स्थादि अभ्युत्थान अर्थात् उठ कर खड़े न हों तो सर्वसंमोग विनयवंदना खाध्याय आदिन करें।
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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