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________________ rawwwimmirm 'प्रतिसेवाधिकार । ६७ रिक्त यह भी प्रायश्चित्त संभव है कि प्रक्षालन, करनेयोग्य पात्रोंके प्रक्षालन करनेका उपवास और इसमें भी यदि अधिक सावद्यकी अपेक्षा हो तो पंचकल्याणक प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥ १०२।। अन्नपानविलिप्तं वा यावत्तावद्विशोधयन् । विशुद्धः कृत्स्नसंशुद्धौ मासिकं समुदाहृतं ।१०३। अर्थ अथवा जितने वर्तनों पर दाल भात आदि अन्न-पान चिपटा हुआ है उतने वर्तनोंको प्रक्षालन करनेवाला विशुद्ध हैं प्रायश्चित्तका भागो नहीं है। और जिनपर अन्न पान चिपटा हुआ है और नहीं भी चिपटा हुआ है उन सबके प्रक्षालन करनेका पंचकल्याणक प्रायश्चित्त कहा गया है । अथवा यह प्रायश्चित्त वैयावत्यके निमित्त पात्रोंको धोने और अपने वता, भिनाके पात्र आदि उपकरणोंके धोनेमें आर्यिकाके लिए समझना चाहिए ।। १०३ ॥ वृपादिवारणे शुद्धः स्याद्वर्षासुतु पंचकं ।., ... सागारवसतौ स्तेनप्रवेशे जोषमास्थितः ॥१०४॥ वीक्ष्यमाणहृतौ मासः कल्याणमहृतावृतोः। वसतावनले स्तेनप्रविष्टे शब्दकृच्छचिः ॥१०५॥ अर्थ-बैल, घोड़े, गधे, आदिको रोक देने-भीतर न.पाने देनेका प्रायश्चित्त कुछ नहीं है। वर्षाकालमें रोक देनेका कल्या
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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