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________________ प्रायश्चित्त-समुच्चय । शास्त्रोंका तथा ज्योतिष गणित आदि करणशास्त्र और योग आदि संवन्यो काव्योंकी शिक्षा निमित्त यदि सम्यग्दशन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्वारित्र और सम्यक्तपसे वहिभूत (रहित) पार्श्वस्थकी कोई मुनि सेवा या उपकार करे तो उस मुनिके लिए मिथ्याकार प्रायश्चित्त है। और यदि इन कारणों के विना पार्श्वस्थका उपकार करे तो पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है।। ८० ॥ व्याधौ सुदस्सहे यत्नाद्धेषजे प्रासुके कृते। मिथ्याकारोऽथ कल्याणमयत्नान्मासपंचके ॥१॥ ___ अर्थ-असह्य व्याधिक होने पर यत्नपूर्वक प्रासुक औषधि करनेमें मिथ्याकार मायश्चित्त और सह्य (सहन करने योग्य ) व्याधिक होने पर यत्नपूर्वक प्रासुक औषधि करनेमें कल्याणक प्रायश्चित्त है। तथा प्रयत्नपूर्वक अच्छी तरह सहन करनेयोग्य न्याधिके होने पर औषधोपचार करनका प्रायश्चित्त पंचकल्याएक और दुःसह व्याधिक हाने पर औषधोपचार करनेका कल्याणक प्रायश्चित्त है ।। ८१॥ समित्यासादने शोके मिथ्याकारश्चिरं धृते । अश्रुपाते च कल्याणं रसगृद्धे द्विलापिनि ॥८२॥ ' अर्थ-ईर्यापथ आदि पांच समितियोंका आसादान अर्थात् विस्मरण हो जाने और चातुर्वण्र्यका वियोग हो माने या
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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