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________________ १८० प्रायश्चित्त___ अब, अस्नान, क्षितिशयन और अदंतधावन मूलगुणोंमें लगे अपराधोंका मायश्चित्त कहते हैं। दंतकाष्ठे गृहस्थाहंशय्यासंस्नानसेवने । कल्याण सकृदाख्यातं पंचकल्याणमन्यथा ॥६॥ __ अर्थ-एकवार, दंतधावन करने, गृहस्थोंके योग्य शय्याः पर सोने और स्नान करनेका कल्याण प्रायश्चित्त है और वार बार इन्ही कामोंके करनेका पंच कल्याण प्रायश्चित्त है ॥६६॥. अब स्थिति भोजन और एक भक्त के विषयमें कहा जाता हैअस्थित्यनेव संरतेऽद द सकृन्मुहुः। .. कल्याण मासिकं छेदः ऋमान्मूलं प्रकाशतः॥ अर्थ-व्याधिश, एक बार बैठकर भोजन करने और अनेक बार भोजन करनेश कल्याण प्रायश्चित्त और बार बार . बैठकर भोजन करने, अनेक बार भोजन करनेका पंचकल्याण प्रायश्चित्त है तथा लोगोंकि देखते हुए अहंकारमें चर होकर एक वार बैठकर भोजन करने और अनेक बार भोजन करनेका प्रव्रज्याच्छेद प्रायश्चित्त और बार बार ऐसा करनेका मूल-पुनीक्षा प्रायश्चित्ता है। भावार्थ-रोगवश और अहंकारवश एक : बार और अनेक वार, स्थिति भोजन व्रत और एक भक्त व्रतका भंग करने पर उक्त प्रायश्चित्त है ॥ ७० ॥ . समितीन्द्रियलोकेषु भूशयेऽदंतघर्षणे। कायोत्सर्गः सत्यःक्षमणं मूलमन्यतः॥
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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