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________________ १७० प्रायश्चित्त - - लोच है और कई उपवासोंके साथ साथ कमसे कम एकोपवास को आदि लेकर छह मास पर्यंतके उपवास और अधिकसे 'अधिक आचार्योपदिष्ट प्रायश्चित्त है ॥४८॥ . हस्तेन हंति पादेन दंडेनाथ प्रताडयेत् । एकाधनेकधा देयं क्षमणं नृविशेषतः ॥ ४९ ॥ ___ अर्थ-जो साधु हाथसे, पैरसे अथवा दंडेसे मारता-पोटता है उसको मनुष्य विशेषके अनुसार एकको आदि लेकर अनेक प्रकारके उपवास देने चाहिए ॥ ४६॥ यश्च प्रोत्साह्यहस्तेन कलहयेत् परस्परं। असंभाष्योऽस्य षष्ठं स्यादाषण्मासं सुपायिनः ।। ___ अर्थ-जो मुनि हाथोंके इसारेसे उत्साह दिलाकर परस्पर में कलह कराता है वह भाषण करने योग्य नहीं है और उस पापीको छह महीने तकका षष्ठ प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥ ५० ॥ छिन्नापराधभाषायायाप्यंसयतबोधने । नृत्यगायेति चालापेऽप्यष्टमं दंडनं मतं ॥५१॥ अर्थ-जिस दोषका पहले प्रायश्चित्त किया गया है उसोको फिर करने पर, सोये हुए अविरतको जगाने पर और नाची गाओ इसादि कहने पर तीन निरंतर उपवास प्रायश्चित्त माने गये हैं॥५१॥ . . .
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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