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________________ प्रायश्चित्त .... ..... . अथवा यत्न्ययत्नेषु हृषीकपाणसंख्यया। कायोत्सर्गा भवन्तीह क्षमणं द्वादशादिभिः॥५॥ ' अर्थ-अथवा इस शास्त्रमें यत्नचारों और अयलचारी इन दोनों पुरुषांके इंन्द्रियसंख्या और प्राणसंख्याके अनुसार कायोत्सर्ग होते हैं और बारह ाद एकेन्द्रियादि जीवोंके घातसे उपनास प्रायश्चित्त होता है। भावार्थ-प्रयत्नचारीके इंद्रिय गणनाके अनुसार और अप्रयत्नचारीके प्राणगणनाके अनुसार कायोत्सर्ग होते हैं। और बारह एकेन्द्रिय, छह दो इंद्रिय, चार तेइ द्रिय और तोन चौइंद्रियके घात करनेका प्रायश्चित्त एक एक उपवास होता है ॥५॥ .... षत्रिंशन्मिश्रभावार्कग्रहैकेषु प्रतिक्रमः। .. एकद्वित्रिचतुःपंचहृषीकेषु सषष्ठभुक् ॥६॥ अर्थ-छत्तोस एकेंद्रियजीव, अठारह दोइंद्रिय जीव, वारह तेइंद्रियजीव, नौ चौइंद्रिय जोव, और एक पंचेन्द्रियजीवके यारनेका प्रायश्चित्त दो निरन्तर उपवास और प्रतिक्रमण है। भावार्थ-छत्तीस एकेन्द्रिय जीवोंके मारनेका प्रायश्चित्त दो उपवास और एक प्रतिक्रमण है। इसी तरह अठारह दोइंद्रिय वारह तेइंद्रिय, नौ चौइंद्रिय और एक पंचेन्द्रियके मारनेका प्रायश्चित्त समझना चाहिए। यहां मिश्रभाव शब्दसे अठारह संख्याका ग्रहण है क्योंकि मिश्रभाव ज्ञान दर्शन आदि अठारह
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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