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________________ छेदाधिकार। १२७ __ अर्थ-लिंगका हाथसे परिमर्दन करने पर, उसे दोनों जंघाओंके मध्यमें रखने पर तथा कांटे, ईट, काष्ठ, खपरे, भस्म गोमय आदि विना दी हुई चीजोंको तोड़ने-फोड़ने और ग्रहण करने पर, कल्याणक प्रायश्चित्त होता है ॥२१२॥ तंतुच्छेददिके स्तोके दन्ताङ्गुल्यादिभिस्तथा। इत्यादिकं दिवाऽणीयो गुरुः स्याद्रात्रिसेवने ॥ ___ अर्थ-मूक्ष्य तंतु, तृण, काष्ठ आदि वस्तुओंको दान्त, उंगलो आदिस तोड़ने-फोड़नेका पंचक प्रायश्चित्त है। इन तंतु. च्छेदन आदि कृत्योंको दिनमें करे तो लघुतर प्रायश्चित्त और रात्रिमें करे तो गुरुतर प्रायश्चित्त होता है ॥ २१३ ॥ प्रायश्चित्तं चरन् ग्लानो रोगादातंकतो भवेत् । नीरोगस्य पुनस्तस्य दातव्यं पंचकं भवेत् ॥ __ अर्थ-दिये हुए प्रायश्चित्तका आचरण करता हुआ मुनि यदि किसी रोगसे या जठरशूल शिरः शूल आदिके निमित्तसे पीड़ित हो जाय तो उसको नीरोग होने पर कल्याणक पाय-- श्चित्त देना चाहिए ॥२१४॥ प्रायश्चित्तं वहन् सूरेः कार्य संसाधयेत् सुधीः। परदेशे स्वदेशे वा दातव्यं तस्य पंचकं ॥२१५॥ अर्थ-उपवास आदि प्रायश्चित्त करता हुआ बुद्धिमान मुनि देशान्तरोंको नाकर या स्वदेशमें ही नाकर आचार्य (गुरु:)
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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