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________________ [ ४६ ] इदि निहि. नह आदि सीळ असीळति को सुख। दुडिदि चद नही डील भोग सजोगनि का भुखं । साच वाच सवाद वाद इहिकार निही वळि। भुयण तीन ग्या भाजि गोम ब्रहमड ग्या मळिं। ताहरी खवरि न पड़े त्रिगुण तिरिण वेळा किहड़ो इ तंत। ऊ घ मा काइ जागे अलख ऊभी काइ वैठो अनंत ॥५६॥ ॥हा॥ ऊभो कांइ बैठो अनंत, निराकार निरधार । पार नि को परमेसरी, वेद कही सो वार ॥ ५७॥ वेद न भेद न पर ब्रह्म, सहज न सील सतोष । मेप नै माप ने महमहण, तु निगुरो निरदोष ॥ ५॥ करम अने अकरम किसन, प्रिनि नै चिति नै ध्रोख । वाप जिनेता बाहिरी, मोख नही तु मोख ॥५॥ ॥कविति ॥ . मोख खमो खम कद निगुण निरपख नरेसुर । निरालव निरलेप अध्रम अछेप सुरेसुर। चिदागद वह चतुर आप विरिण पार अमूल । सास पास विरिण सदा एक एकु असतूल । अण मरण ग्यान अण कसट अश अति उद्यास अनाथ अति । अखंडित रूप अवरण अलख सरव भूति आधार सति ॥६॥ सरव भूरति साधार विसव मूरति निसवादी। आदि पुरुष अविरणास प्रादि वाहिरी अनादी। आदि अगादि अनत आदि हुतो औ आतिम । तु अरेळ अपरेत प्रभु अचेत पुरातम । विगन्यान ग्यान तु हिज विपति तु अछेद अभेद तन । अविगत नाथ केवल अलख, पाप निही तु कोइ पन ॥६॥
SR No.010757
Book TitlePirdan Lalas Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year
Total Pages247
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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