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________________ श्री विहरमान विशति जिन गीतम् (६) श्री स्वयंभ जिन गीतम् देशी-नणदलनी जात सामि स्वयप्रभू सांभलउ, करिह निवाज सकाइ । जगजीवन । विरुद गरीब निवाजनउ, जिम जग जस थिर थाइ ज०१सा० पोताना अरिअण हण्या, तिण अरिहंत कहंत ।ज०॥ जउ मुझ अरिदल निरदलउ, तउसाचउ अरिहत ।।ज०॥रसा० तू स्यु तारइ तेह नइ, जे सूधा अणगार ज०। तारक विरुद खरउक रउ, तउ मुउ सरिखउ तार ||ज०१३सा० अतरजामी माहरउ, तू किण कारण होइ ।ज० अतरगति लेवा भणी, न दियइ कागल कोइ ज०॥४॥सा०॥ नेह गहेला मानवी, भावइ तिम भासंति ज०॥ भारी खम 'जिनराज' जी, केहनइ छेह न दिति ।ज०५सा० (७) श्री ऋष मानन जिन गीतम् देगी-पाज धुरा हुँ धुंधलउ, ए जाति मई तउ ते जाण्यउ नही साहिव, जेसु तुम्हचइ रंग । तउ हो छाडी न को सकइ, साहिब पाणीवल तुझ सग ॥१॥ कोडि गाने हेजालूये, हेले मुझ गुण गेह । फेरि हेलउ न को तईदीयउ, साहिब तू साचउ निसनेह॥२॥को० आदर मान न.को दीयइ, साहिब करइ न का बगसोस । तउ पिण ऊभा ओलगइ साहिब, इन्द्रादिक निसदोस ॥ ३ ॥ को० ॥
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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