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चणउं जिमइ तउ पूरठ श्राहार, थोडा नीमउ तउ पुण्यवंतु ।
नउ पटउला पिहरइ तउ राज राजेसरु |
नउ सामान्य वस्त्र पहिरड तड लवेसर 1 नउ दातार तउ वलि कर्णावतार ।
उ लक्ष्मी न वावर तउ प्रछन्न पुण्य करइ ।
जउ घण्उ बोलइ तउ भोलउं, न बोलइ तर मित भाषी ।
भोग चपल तड कंपवितार; जउ श्रविषह तउ परनारी सहोदर | नउ टालि माथइ, तर टालिये पुण्यवंत जि हुइ ।
श्लोकाः -
यस्याति वित्तं स नरः कुलीनः सः पंडितः सश्रुतवान विवेकी, स एव वक्ता, सच दर्शनीय. सर्वेगुणाः कांचन माश्रयंति ॥ - गुण वृद्धा तपोवृद्धा ये च वृद्धा बहु श्रुता ।
सर्वे ते घन वृद्धस्य द्वारे तिष्ठन्ति किंकरा: ॥ १०६ ॥ जे०
(१६) ऋद्धिवंतु - ( ३ )
ऋद्धिवंतु, पुण्यवंतु।
कर्पूर कुलगला करइ, श्रद्भुत शृंगार रस माचरइ
नितु नव नवालंकार बावरइ, उत्फुल्ल पुष्प शय्या श्रादरह | हींडोलाट खाटनी लीला घरइ, भोग पुरंदर हुनउ फिरइ । सकल स्त्री लोक लोचन हरइ, दृष्टि दीठउ मनि विकार करह । नव नवे लीला विलासे रमइ, मूँह पूंछी जिमह ।
कडि पूछी पहिरइ, खडोखली तणा पाणी लहिरइ । ललित गर्भेश्वर, द्रव्य अविनश्वर ।
शालिभद्रानुकार, मदन मुद्रावतार |
अश्रात तत्रोल समारइ, पंच प्रकार विषय सुख श्रमाणइ । ऊगि प्राथमिउ काई न जाणई ।
गाया
जाई विज्ञावं, तिन्निवि निवडंतु कंदरे विवरे । प्रत्युच्चियं परिबुद्धो जेण गुग्गा पायडा हुंति ।