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________________ वीरवाण ११७ . गोग लछु सिर उतरै मुझ बकरा मारी। धीर सुणै अरि धुधड़े लंग सषड़ लारी ॥ जलम्या पेट जवादरै अस दोय आपांणी । चढ़ीया उदल धीर दे धरती धुजांणी ॥ हीराळो न पड़ाहीयो जंगम जग जाणी। ऊजो आयो धीर दे कर तेग उबांणी ॥ आय लछुसर उतरा गहमें भरीयोड़ा। उरस तणै मग उतरै दल वादल दोड़ा ।। दूर अचाणक देषीया चंचळ चर तोड़ा। अस पकड़े कर आपरा रिण बजे रोड़ा ॥ भुषा तिरसा आपरा वांधीजे सोड़ा। ढलीया हात न आवसी गोगादे घोड़ा ॥ ११९ अस सह हातां उतरे थहीया दळ पाळा । काळ ज्यूं ही करवा कलह उठे अळसाळा ।। भूषा सिंह जिम भूटकै रोसै लरढाळा । कंपै छाती कायरां धुब झाळो झाळा ।। सुरा सिंघण थेह ज्यूं धुबिया पंषाळा ॥ सांवत तेग संभायके सज सायर साया । लड़तां कांनो धीर ले तद होय तिसाया । कुड़ा रांण कसुंस कर जादम जल पाया। अभंग लुणाणी उठिया बल दाष सवाया ॥ १२१ दूहा . पाणी पीधां जोइयां, पोह धर. मुछां पांण । दिस गोगारे मलफीया, डाकी भरता डांण ।। १७१
SR No.010752
Book TitleVeervaan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRani Lakshmikumari Chundavat
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages205
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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