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________________ ६२ ३ स्मरण कला कल्पना अनुभव के आधार पर ही होती है । पर उसका अर्थ यह नही है कि जो-जो विषय हमने जिस जिस प्रकार से अनुभूत किये है, उन उन विपयो की कल्पना उस प्रकार से ही हो। ' उदाहरण के तौर पर हमने पिंजरे में वन्द सिंह को देखा है फिर भी उसे जंगल मे घूमते और छलांग भरते हुए भी कल्पित कर सकते हैं। मनुष्यों को घूमते-फिरते तथा दौडते देखा है तो उन्हे दरिया तैरते अथवा अाकाश मे उडते हुए भी कल्पित किया जा सकता हैं। गाय को घास खाते देखा है तो उसे बोलती हुई या बात करते हुए भी कल्पना में लाया जा सकता है। इस प्रकार से उठती हुई कल्पना मूल अनुभव से पृथक् दीखते हुए भी वह अनुभव की सीमा से बाहर नहीं होती। उसमे अनुभवो का ही एक प्रकार का मिश्रण होता है। सिंह को पिंजरे मे वन्द देखने पर भी उसे जगल मे घूमते हुए, छलाग भरते हुए भी कल्पित किया जा सकता है, क्योकि सिंह, जगल, घूमना, छलांग भरना-ये वस्तुएं अपने अनुभव मे आ चुकी हैं। मनुप्यो को हमने घूमते फिरते देखा है पर दरिये को तैरते हुए या अाकाश मे उडते हुए भी कल्पना की जा सकती है क्योकि मनुष्य, दरिया, तैरना, आकाश मे उडना-ये अनुभव मे पा चुके है। उसी प्रकार गाय, बोलना, बात करना यह सब अपने अपने अनुभव मे आ चुका है। । इस तरह इन तीनों प्रसंगो मे अनुभव उपस्थित थे, उनका एक प्रकार का मिश्रण हो गया। तुम कहोगे कि यह बात तो ठीक, पर अपने मे से किसी ने कभी राक्षस या ईश्वर नही देखा है, फिर उनकी कल्पना कैसे कर लेते हैं ? तो उसका उत्तर भी ऊपर के अनुसार है, जिन तत्त्वो से राक्षस या ईश्वर की कल्पना की जाती है। वे समस्त तत्त्व एक या दूसरे समय मे 'अनुभूत कर चुके हैं और यह उन्ही का मिश्रण है। राक्षस की देह पर्वत के समान मोटी है, तो देह तथा पर्वत अपने अनुभव मे आ चुके हैं । राक्षस की आँखें धगधगते लोहे के गोले के समान है, लाल सुर्ख है, तो आँखें, धगघगता लोहे का लाल गोला अपने अनुभव मे आई हुई वस्तुएं हैं । उसे एक घण्टा मे पचास हजार मील की गति से चलने वाला मानते हैं, तो
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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