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________________ .: पत्र बारहवाँ कल्पना का स्वरूप प्रिय बन्धु, कल्पना कितनी मनोरजक होती है, उसका कुछ नमूना तुम पिछले पत्र में पा चुके हो। अब इस पत्र मे उसके स्वरूप के विषय मे आवश्यक जानकारी दे रहा हूँ। एक वस्तु इन्द्रिय प्रत्यक्ष न होने पर उसका जो एक आभास होता है, उसे कल्पना कहते हैं। उदाहरण के तौर पर हमारी दृष्टि के समक्ष हाथी न होने पर भी मन मे हाथी का चित्र उभरे तो वह हाथी की कल्पना है । इसी प्रकार आकाश में एक भी बादल न होने पर भी मन मे घनघोर घटा का और प्रचण्ड मेघ गर्जना का विचार उठे तो वह बादल और मेघ गर्जना की कल्पना कहलाएगी। इसी तरह एक वस्तु साक्षात् पास मे न होते हुए भी पास मे है, न चखते हुये भी चाख रहे हैं, न सूघते हुए भी सूघ रहे हैं । जिस विषय का विचार उठता है, वह स्पर्श, रस, गन्ध की कल्पना कहलाती है । इस प्रकार की कल्पना करने की शक्ति कम-अधिक मात्रा में प्रत्येक मनुष्य मे होती है। अपने मन मे जो कल्पना उठती है, वह पूर्वकाल मे अनुभूत विषयो के आधार पर ही उठती है। इसीलिए जिमका अनुभव नही हुआ है, उसकी कल्पना भी नही उठ सकती। उदाहरण के तौर पर जो जन्माध होता है, वह रग या प्रकाश को कल्पना नही कर सकता क्योकि उसका रंग या प्रकाश का अनुभव नहीं होता है अथवा जो जन्म से बधिर होते हैं उन्हे मन्द तीन आदि किसी भी प्रकार के स्वर की कल्पना नही उठती, क्योकि उन्होने स्वर श्रेरिणयो का कभी अनुभव ही नही किया है।
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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