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________________ मुख्यतया सम्यग्-दर्शन, तत्त्व-दर्शन, प्रात्म-दर्शन; शुद्ध स्वभावानुभूति, परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । चर्म चक्षुषो के द्वारा होने वाले इस दर्शन से यह दर्शन सर्वथा निराला है । अत प्रज्ञा-चक्षु को भी यह दर्शन सुगम होने का विधान है। नयों की अपेक्षा से दर्शन (१) नैगम नय की अपेक्षा से प्रभ दर्शन अर्थात् मन, वचन, और काया की चचलता के साथ केवल चक्षुओं से प्रभु-मूर्ति को देखनी । (२) सग्रह नय की अपेक्षा से प्रभु-दर्शन अर्थात् समस्त जीवो मे सिद्ध के समान शुद्ध सत्ता का दर्शन करना । (३) व्यवहार नय की अपेक्षा से प्रभु दर्शन अर्थात् आशातनी रहित वन्दन-नमस्कार सहित प्रमु-मुद्रा अथवा प्रभु की देह को देखना । । । (४) ऋजु सूत्र नय की अपेक्षा से प्रभु-दर्शन अर्थात् योगो की स्थिरतायुक्त उपयोग से प्रभु-मुद्रा देखना । (५) शब्द नय की अपेक्षा से प्रभु-दर्शन अर्थात् आत्म-सत्ता प्रकट करने की रुचि से प्रभु की तत्त्व सम्पत्ति रूपी प्रभुता का अवलोकन करना । (६) समभिरूढ नय की अपेक्षा से प्रभु दर्शन अर्थात् केवल ज्ञान, केवल-दर्शन की प्राप्ति । (७) एव-भूत नय की अपेक्षा से प्रभु-दर्शन अर्थात् जीव जब अपनी शुद्ध सत्ता को प्रकट करता है और पूर्ण शुद्ध और सिद्ध होता है वह । · श्री अरिहन्त परमात्मा के दर्शन रूप निमित्त से ही आत्मा की सत्तागत शक्तियो का आविर्भाव होता है, उसके अतिरिक्त नही होता । " ९० मन मिले भीतर भगवान्
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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