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________________ इस प्रकार किसी भी योग, अध्यात्म अथवा धर्म-साधना का वास्तविक पूर्ण फल-प्रीति, भक्ति, वचन (शास्त्रोक्त विधि) एव असगता के द्वारा ही प्राप्त होता है जिससे परमात्म-दर्शन की साधना मे भी प्रीति, भक्ति, वचन और असग-अनुष्ठान की ही प्रधानता है । यदि प्रीति-भक्ति युक्त पूजा आदि की जाये तो क्रमश परमात्म-दर्शन अवश्य हो सकता है, क्योकि इस काल मे भी अप्रमत्त गुण-स्थानक तक तो पहुँचा ही जा सकता है। परमात्म-दर्शन एवं समापत्ति सम्यग-दर्शन द्वारा परमात्मा का दर्शन प्राप्त होता है और सम्यग्चारित्र द्वारा परमात्मा से मिलन होता है । अप्रमत्त आदि गुण स्थानक मे वास्तविक तौर से ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकता रूप समापत्ति होती है जिससे ध्याना की प्रात्मा भी ध्येयाकार धारण करके परमात्मा के साथ अभेद भाव से मिल जाती है । कहा भी है कि ध्याता-ध्येय-ध्यान पद एके । भेद छेद करशु हवे टेके ।। क्षीर-नीर परे तुमशु मिलशु । वात्रक यश कहे हेजे हलशू ॥ सच्चारित्रवान् श्री उपाध्यायजी भगवत के ये हृदयोद्गार ग्रहण करके आत्मा और परमात्मा के मध्य स्थित भेद की दीवार को धराशायी करने के लिये हम सब माज से ही तात्त्विक-जीवन की सच्ची भूख जागृत करने वाले प्रीति आदि अनुष्ठानो मे अपनी समग्रता को केन्द्रीभूत करके इस मानवभव को उज्ज्वज करें। 'दर्शन' शब्द के विविध अर्थ और नयों को अपेक्षा से दर्शन दर्शन शब्द के अनेक अर्थ व्यवहार मे प्रचलित हैं जैसे-देखना, जानना, सामान्य ज्ञान, सामान्य उपयोग आदि, परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ मे 'दर्शन' शब्द मन मिले भीतर भगवान् ८९
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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