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________________ श्री अरिहन्त परमात्मा का दर्शन अर्थात् साक्षात् श्री अरिहन्त परमात्मा के दर्शन मे उत्कृष्ट कारण रूप श्री जिन-शासन अथवा साक्षात् प्रात्म-दर्शन मे उपादान कारणभूत सम्यग-दर्शन । . - प्रभु-दर्शन सुख-सपदा, प्रभु-दर्शन नव निध। प्रभु-दर्शन थी पामिये, सकल पदारथ सिद्ध ॥ दर्शन देव देवस्य, दर्शन पाप नाशनम्। दर्शन स्वर्ग सोपान, दर्शन मोक्षसाधनम् ।। . यह दोहा और श्लोक दोनो प्रभु-दर्शन के अगाध सामर्थ्य का प्रतिपादन करते हैं। . यदि 'दर्शन' मे 'प्रभु-दर्शन' ही हो तो इस दोहो और श्लोक में जिस फल की प्राप्ति का विधान है वह सत्य ठहरता है। जैसे स्वच्छ दर्पण अपना चेहरा जैसा है वैसा दर्शन कराता है, उसी प्रकार से प्रभु का दर्शन अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप' को दर्शन कराता है। जिस प्रकार दर्पण अपना कर्त्तव्य पूर्ण करता है । उसी प्रकार से प्रभु दर्शन भी स्व-धर्म पूर्ण करता है और उसका प्रारम्भ प्रभु-पूजा रूपी प्रीतिअनुष्ठान से होता है। " 'दर्शन' शब्द के विविध अर्थों एव नयो की अपेक्षा से 'दर्शन' का विचार करने से हम किस धरातल पर हैं, किस तरह का प्रभु-दर्शन करते हैं और किस तरह का प्रभु-दर्शन करना चाहिये उसका यथार्थ ध्यान आता है जिससे आगे बढ़ने की प्रेरणा प्राप्त होती हैं । उससे दर्शन-शुद्धि मे वृद्धि होनी है, जो वढते-बढते प्रभु-तुल्य स्वात्मा के दर्शन में परिणत हो जाता है और उससे आत्मा का परमात्म-मिलन हो जाता है । 11 - मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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