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________________ ' घट मे ही सम्पूर्ण समृद्धि के दर्शन - अनुभव-दशा मे वाह्य दृष्टि का प्रसार बंद होता है, जबकि योगी को विश्व की श्रेष्ठतम समृद्धि अपने प्रात्म-मन्दिर मे ही दृष्टिगोचर होती है जो निम्नलिखित है'. ' आत्मानन्द-दायक समता रूपी इन्द्राणी, समाधि रूपी नन्दन-वन और परिषत् उपसर्गों की पखों को भेदने वाले धैर्य रूपी वज्र के साथ स्वात्म बोध रूपी विमान के निवासी मुनि इन्द्र हैं । इन्द्र के वैभव-विलास को ज्योति हीन करने वाले इस वैभव का स्वामी होकर वह आनन्द करता है । क्रिया रूपी चर्म-रत्न और ज्ञान रूपी छत्र-रत्न का विस्तार करता हुना और मोह रूपी मलेच्छो द्वारा की गई तीक्ष्ण शर-वृष्टि को निष्फल करने वाला मुनि चक्रवर्ती ही है। आध्यात्म रूपी कैलाश पर्वत पर विवेक रूपी वृषभ पर सवार योगी विरति रूपी गगा ओर ज्ञप्ति रूपी गौरी से युक्त साक्षात् 'शिव' की तरह सुशोभित है। - गगा, यमुना एव सरस्वती के तीन प्रवाहो का सगम होने पर जिम प्रकार पवित्र गगा सुशोभित होती है, उसी प्रकार से दर्शन, ज्ञान एव चारित्र के त्रिवेणी सगम के समान अरिहन्त पद' भी सिद्ध योगी से दूर नही है'। इस अलौकिक समृद्धि का स्वात्मा मे दर्शन करने वाला योगी निज आनन्द मे मस्त रहता है। अनुभव-दशा का महत्त्व इस प्रकार विश्व मे अलभ्य सर्वश्रेष्ठ ऋद्धि-समृद्धि का निवास आत्मा मे ही है जिसका सुमुनि को अनुभव होता है । अनुभव-ज्ञान अपूर्व वस्तु है जिसे प्राप्त करते के लिये अथक पुरुषार्थ करना पड़ता है। ७८ मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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