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________________ शास्त्र उसका केवल निर्देश करते हैं। शेष कार्य उन निर्देशो के । अनुसार आचरण करके साधक को करना पड़ता है। अहमदाबाद से पालीताना जाने का राजमार्ग मान-चित्र (नक्शा) बतलाता है, परन्तु जिस व्यक्ति को पालीताना पहुँचना है, गिरिराज के स्पर्श का लाभ लेना है। उसे तो उस - मानचित्र मे प्रदर्शित पथ पर स्वयं चलना ही पडता है। केवल मानचित्र को पकड कर बैठने वाले व्यक्ति को गिरिराज के स्पर्श का आनन्द प्राप्त नहीं होता। उसी प्रकार से केवल शास्त्रो के अध्ययन एव उनकी सैकड़ो युक्तियो से आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ज्ञान होता है, परन्तु उसका स्वाद तो तब ही प्राप्त किया जा सकता है जब उसे कार्य करने देकर साधक कुछ नही करने (होने) के उच्चतर आध्यात्मिक स्तर तक पहुँचता है। __ “पर-ब्रह्म अथवा पर ब्रह्ममय ,परमात्मा का दर्शन करने के लिये लिपि-मयी, वाङ्मयी अथवा मनोमयी दृष्टि भी समर्थ नही हो सकती, परन्तु उसके दर्शन केवल विशुद्ध अनुभव-दृष्टि के द्वारा ही हो सकते हैं।" . . "सुषुप्ति, स्वप्न एव जागृत दशा से परे चौथी अनुभव-दशा है, जिसमे मोह एव कल्पना का सर्वथा अभाव होता है।" . . अचिन्त्य शक्ति सम्पन्न प्रात्मा का प्रकट अनुभव सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रकार के चिन्तन से भी परे है। राग-विहीन अवस्था के चरम शिखर पर ही 'प्रात्मानुभव सभव होता है । शास्त्र-दृष्टि से शब्द-ब्रह्म को ज्ञात करके तदनुसार जीवित रहने वाला योगी अनुभव-योगी बन कर पर-ब्रह्ममय परमात्मा मे लीन हो जाता है। परमरत्म-स्वरूप मे लीन बनी मात्मा स्वय को भी परमात्म-तुल्य , देखती और जानती है। इस प्रकार की आत्मा कर्म-मल से लिप्त नही होती, परन्तु ध्यान की तीक्ष्ण धारा के द्वारा पूर्व-कृत कर्मों की निर्जरा करती जाती है । मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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