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________________ फिर भी श्री जिनोपदिष्ट शास्त्रो का यह महान उपकार है कि जो । आत्मा को पहचानने का, उसका सत्कार करने का, उसे अपनाने का चस्का .. लगाते हैं तथा उसी दिशा मे वे परम उपकारक ज्योति बिखेर कर जीवो को । जड पदार्थों के राग मे न रगने की प्राणदायिनी प्रेरणा देते हैं। श्री जिनोक्त शास्त्र भव अटवी मे भटकते जीवो के लिये उतने ही। उपकारी हैं, जितना उपकारी बन मे भूले-भटके प्रवासी को लिये पथ प्रदर्शक होता है। इस शास्त्र की आँख से साधना के शिखरो पर विजय प्राप्त करने वाला साधक परमात्म-ध्यान मे मग्न होकर ही उक्त समता मुख का अनुभव कर सकता है। अनुभव-योगी की प्रात्मिक दशा परमात्म-स्वरूप के ध्यान मे मग्न बने योगियो को अपनी आत्मा सच्चिदानदमय प्रतीत होती है । इतना ही नहीं, विश्व की प्रत्येक प्रात्मा भी सच्चिदानदमय प्रतीत होती है। उनकी दृष्टि मे से कृपा की सतत वृष्टि होती रहती है। उनकी वाणी मे से समता रूपी अमृत झरता रहता है जो त्रिविध तापो से सतप्त जीवो को अपने सान्निध्य मात्र से शीतलता प्रदान कर सकता है। पर-भाव से मुक्त इस प्रकार के योगी को स्व-भाव सुख का अपूर्व लाभ होने पर फिर विश्व मे प्राप्त करने योग्य कुछ भी शेष नही रहता, पर वस्तु विषयक लालसा का एक अश भी उसके मन के किसी भी भाग मे शेष नही रहता। अतः वह स्वभाव-रमणता मे तन्मय रह सकता है। चित्त के किसी भी भाग मे यदि पर पदार्थ की स्पृहा होती है तो । चित्त स्व मे मग्न नही हो सकता । वह विकल्पो की तरगो मे भटकता रहता है जिससे वह महान् दुख का कारण बनता है, जबकि निस्पृहता विकल्प की लहरो को शान्त करके समता का अनुपम सुख प्रदान करती है। मिले मन भीतर भगवान ७७
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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