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________________ यत पुरुपार्थ प्रसाधिकाः विद्या प्रावर्तन्त ततः कृतार्थो भूयासं जिनके द्वारा पुरुषार्य सिद्ध करने | उनसे मैं कृतार्थ होता हूँ। वाली विद्या प्रवर्तित हुई है । यस्य ज्ञान भवद् भावि तस्य किंकरः भवेयम् भूत-भावावभासकृत् । जिनका ज्ञान वर्तमान, भावि और | उनका मैं सेवक हूँ। भूतकाल के भावो को प्रकट करने वाला है। यस्मिन् विज्ञानमानन्द ब्रह्मचैकात्मता गतम् तत्र स्तोत्रेण कुर्या च पवित्रा स्वा सरस्वतीम् जिनमे विज्ञान (केवलज्ञान) आनन्द | उनकी स्तुति करके मैं अपनी वाणी एव ब्रह्म-परमपद-ये तीनो एक रूप । को पावन करता हूँ। विवरण -कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य रचित वीतराग स्तोत्र के इस प्रथम प्रकाश मे अनेक रहस्य सागर के तल मे छिपे रत्नो की तरह छिपे हुए है, वे साधक को आत्म-साधना मे यथार्थ मार्ग-दर्शन एव गतिशीलता प्रदान करने वाले हैं। इस महाप्रभावशाली स्तोत्र मे समस्त गुणो मे चरमोत्कर्ष पर पहुँचे हुए श्री वीतराग अरिहन्त परमात्मा के अनुपम गुणों की स्तुति करके परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का स्पष्ट दिग्दर्शन कराया गया है, अर्थात् त्रिभुवनपति श्री अरिहन्त परमात्मा के यथार्थ स्वरुप का हृदयस्पर्शी निरूपण किया गया है । उसके साथ ही साथ परमात्म दर्शन के ठोस उपाय भी स्पष्ट किये गये हैं। प्रथम साढे तीन छन्दो (गाथा) मे उल्लिखित गुणो द्वारा श्री वीतराग अरिहन्त परमात्मा के असाधारण गुणो की वास्तविक स्तुति की गई है और M मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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