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________________ अर्थ-तो भी श्रद्धा से मुग्ध बना मैं परमात्मा की स्तुति करने में स्खलना होने पर भी उपालम्भ का पात्र नही हूँ, क्योकि श्रद्धालु व्यक्ति की सम्बन्ध-विहीन वाक्य रचना भी सुशोभित लगती है ।(८) त्रिलोकीनाथ, विश्व-चिन्तामणि, जगद्गुरु, परम करुणा-निधान, शरण दाता श्री अरिहन्त परमात्मा की सर्वोत्तम गुण-गरिमा एव उनकी शरण मे आये हुए भक्त के भक्ति-सिक्त हृदय की प्रार्थना (भावना) का कैसा कार्यकारण भाव है, उसका भाव-वाही सुन्दर वर्णन इस स्तोत्र मे हुआ है जिसे हम देखें। शरण्य परमात्मा की गुण गरिमा :- | शरणागत भक्त की मनोभावना : यः परमात्मा परज्योति परम परमेष्ठिनाम् स श्रद्धयः स च ध्येय जो परमात्मा, पर ज्योति और परमेष्ठियो मे प्रधान हैं। वे श्रद्धय हैं और ध्येय हैं। यम् तमस परस्ताद् आदित्यवर्णं आमनन्ति तम् च प्रपद्य' शरण जिन्हे विद्वान् लोग अज्ञान से परे | | उनकी शरण मैं अगीकार करता हूँ। और सूर्य के समान तेजस्वी मानते हैं। येन सर्वे क्लेशपादपाः तेन स्या नाथवान् समूला उदमूल्यन्त जिन्होने राग आदि क्लेश-वृक्षो को | उनके कारण मैं सनाथ हूँ। समूल उखाड डाला है। यस्मै नमस्यन्ति सुरासुर नरेश्वरा तस्मै स्पृहयेय समाहित जिन्हे सुर, असुर, मनुष्य एव उनके उन्हें समाहित मन वाला मैं अधिपति शीश झुकाकर नमस्कार | चाहता हूँ। करते है। - मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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