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________________ यस्मिन् विज्ञानमानन्द, ब्रह्म चैकात्मतागतम् । स श्रद्धय', स च ध्येय., प्रपद्य गरण च तम् ॥४॥ अर्थ-जिनमे विज्ञान-केवल ज्ञान, प्रानन्द-अव्यावाध सुख एव ब्रह्मपरमपद, ये तीनो एकीकृत हैं, एक रूप हैं, वे (परमात्मा ही) श्रद्धय है एवं ध्येय हैं । मै उनकी शरण अगीकार करता हूँ (४) तेन स्या नाथवास्तस्मै, स्पृहयेय समाहित । तत कृतार्थो भूयास, भवेय तस्य किंकरः ॥५॥ अर्थ-उन परमात्मा के कारण मैं सनाथ हूँ उन परमात्मा को मै समाहित-एक मन वाला वनकर चाहता हूँ, मैं उनसे कृतार्थ हूँ और मैं उनका सेवक हूँ।(५) तत्र स्तोत्रेण कुर्यां च पवित्रा स्वा सरस्वतीम् । इद हि भवकान्तारे, जन्मिना जन्मनः फलम् ॥६॥ अर्थ- उन परमात्मा की स्तुति-गुणगान करके मैं अपनी वाणी को पवित्र करता हूँ क्योकि इस भव अटवी मे प्राणियो के जन्म का यही एक फल है ।(६) क्वाह पशोरपि पशुर्वीतरागस्तवः क्व च । उत्तितीर्घ ररण्यानि, पझ्या पड गुरिवारम्यत |॥७॥ अर्थ-पशु मे भी पशु जैसा मैं कहाँ ? और वृहस्पति से भी असम्भव ऐनी वीतराग की स्तुति कहाँ ? इसलिये दो पाँवो से महान् अटवी को पार करने के अभिलाषी पगु व्यक्ति के ममान मैं हूँ, अर्थात् मेरा यह आचरण अत्यन्त माहसी होने के कारण हास्यास्पद है । (७) तथापि श्रद्धामुग्धोऽह, नोपालभ्य स्खलन्नपि । वि खलापि वाग्वृत्तिः, श्रद्दधानस्य शोभते ॥८॥ go मिल मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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