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________________ ३८ प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी जाता है, उसी प्रकार जिधर जिधर बालक का मुख घूमता है उधर उधर ही सर्प अपने फण को फैलाए हुए बालक के सिर पर अपना साया करता जाता है। इस दृश्य को देखकर माता लक्ष्मीदेवी अपने मन में फिर इस प्रकार विचार करने लगी "सुना जाता है कि जिस किसी के शिर पर विषधर सर्प अपना फण फैलाकर छत्र करता है, वह अवश्य सम्राट बनता है। इस बालक के गर्भ में प्राते समय जो मुझे स्वप्न हुआ था अथवा गर्भावस्था मे जो मुझे दोहला हुआ था वह सब इस बालक के अलौकिक प्रभाव को प्रकट करते हैं। उस गर्भ के प्रभाव से महामारी हट गई थी। उन दिनों मेरे मन में सदा यह भावना रहती थी कि मैं अलौकिक प्राणीमात्र के हितकारी कुछ अद्भुत नृतन कार्य करू। इन सब घटनाओं से यह प्रमाणित होता है कि यह वालक एक महान पुरुष बनेगा। नूरजहां तथा मल्हारराव होल्कर के शिर पर भी इसी प्रकार सर्प ने छन किया था, जिससे नूरजहां एक भिखमंगे पथिक की कन्या होकर भी भारत की ऐसी सम्राज्ञी बनी जो सारे साम्राज्य का संचालन करती थी। उसी के प्रभाव से मल्हारराव होल्कर एक गडरिये का पुत्र होते हुए भी इन्दौर का महाराजाधिराज बन गया। फिर भी सर्प सर्प ही है । इसका क्या विश्वास ! न जाने कब उसके पूर्व संस्कार जाग उठे और वह बालक का अहित कर बैठे। अस्तु हे नागरान ! मैंने बालक के प्रत्यक्ष पुण्य को देख लिया, जिसके प्रभाव से तुम्हारे जैसा जन्मजात क्र र स्वभाव वाला प्राणी भी उसका अनुचर बन कर सौम्य भाव से उसके ऊपर सजीव छत्र बन रहा है । इस समय बालक के कुन्दनमय सुडौल तेजस्वी मुख पर आपके कृष्ण वर्ण फण का छत्र ऐसी शोभा उत्पन्न कर रहा है कि उसे देख कर मेरा मन विशेष रूप से
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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