SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ सर्प द्वारा छत्र करना मुग्ध हो रहा है। फिर भी नागराज ! इस दृश्य से मेरे कोमल हृदय में भयजनित विव्हलता बढ़ती जाती है। इसलिये कृपा कर अब आप इस फरण रूपी छत्र को दूर हटा कर मेरे हृदय की ब्याकुलता को दूर करो और यहां से चले जाओ।" माता लक्ष्मी देवी इस प्रकार मन ही मन प्रार्थना करके चुपचाप इस दृश्य को फिर देखने लगीं। अचानक सांप ने अपने फरण को समेट कर अपनी कुण्डली में रख लिया। फिर उसने धीरे धीरे पलंग से नीचे उतरना आरम्भ, किया। माता लक्ष्मी देवी ने उसे पलंग से उतर कर नीचे आते हुए तो देखा, किन्तु फिर वह सर्प ऐसा अदृश्य हुआ कि वह यह बिल्कुल न जान सकीं कि सर्प किधर गया। वह तो उस विशाल भवन के अन्दर अदृश्य होकर एकदम गायब हो गया। सर्प के चले जाने से माता के हृदय में ऐसा भारी हर्ष हुआ कि उसका वर्णन लेखनी द्वारा नहीं किया जा सकता। वह तुरन्त दौड़ कर बालक के पास आई और उसे प्रफुल्लित नेत्र द्वारा अनिमेष दृष्टि से देखने लगीं। उन्होंने बालक के जागने की भी प्रतीक्षा न की और उस सोते हुए को ही उन्होंने उठा कर अपनी गोद में ले लिया। फिर वह उसको गोद में लिये २ शाह मथुरादास जी के पास आई और इस प्रकार कहने लगीं ___ "आज तो मैं ने एक गजब का दृश्य देखा। आज वास्तव में मैं ने इस बालक का ऐसा भारी चमत्कार देखा कि एक अत्यन्त भयंकर तथा स्थूलकाय कृष्ण सर्प इसके शिर पर छत्र कर रहा था। मैं प्रथम तो इस दृश्य को देखकर एक दम घबरा गई, किन्तु फिर मैं तुरन्त यह समझ गई कि वह बच्चे को हानि पहुँचाने वाला नहीं है। फिर मैंने मन ही मन नागदेव से
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy