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________________ जितेन्द्रियता १५६ किसी के भी सन्मुख प्रकट नहीं करूंगी और जहां तक होगा तेरी सहायता भी करूगी अपनी सखी के यह शब्द सुन कर युवती को संतोष हुआ। वह सोचने लगी कि जब तक मैं अपने अन्तःकरण की बात किसी से न कहूँगी तब तक काम भी नहीं चलेगा। अपने मन मे यह विचार करके वह अपनी सखी से बोली युवती-सखी ! मैं ने शाह सोहनलाल जी सर्राफ की बहुत प्रशंसा सुनी थी। पिछले दिनों एक बार मुझे उनको देखने का अवसर भी मिला। उनके देखने पर तो मैं अपने आप को ही भूले गई। अब तो मैं जिधर देखती हूँ उधर मुझे सोहनलाल ही सोहनलाल दिखलाई देता है। अब तो उसके बिना मेरा जीवन असम्भव है। युवती की इस बात को सुन कर उसकी सखी बोली सखी-सखी! सोहनलाल अत्यन्त धर्मात्मा है । वह अन्याय मार्ग पर चलने के लिए कभी भी तय्यार न होंगे। उनका केवल शरीर ही सुन्दर नहीं, वरन् उनका आत्मा उससे भी कहीं अधिक सुन्दर है। इसलिये सखी तुम उसके मिलने को आकाशकुसुम के मिलने की आशा के समान त्याग कर धर्म में अपना मन लगाते हुए अपने आत्मा का कल्याण करो। व्यर्थ कर्मबंधन में तुमको नहीं पड़ना चाहिये। युवती-सखी! यह मैं भली प्रकार जानती हूं कि सोहनलाल बहुत ही धर्मात्मा तथा गुणवान् है। इसी से तो मैं उसे अपने हृदय का हार बनाना चाहती हूँ। सखी ! अच्छी वस्तु के प्राप्त करने को सभी का मन चाहता है। चन्दन का थोड़ा सा भी संसर्ग शरीर को शीतल कर देता है। सखी ! . यदि तू मेस
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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