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________________ १६० प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी जीवन चाहती है तो मुझे एक वार किसी प्रकार सोहनलाल से मिला दे। यदि तू ने मेरा यह कार्य कर दिया तो मैं तेरा अहसान कभी भी न भूलूगी। युवती की इस बात को सुन कर उसकी सखी अपने मन में इस प्रकार विचार करने लगी "इस समय यह विषय के मद में वेहोश है। इस समय यह मेरे कितना ही समझाने पर भी नहीं समझेगी, क्योंकि मोह तथा शिक्षा का आपसी वैर है। सोहनलाल धर्मात्मा है। उसकी कीर्ति चारों ओर फैली हुई है। यदि मैं उसको किसी प्रकार इसके पास ला सकी तो वह इसे अवश्य ही समझा कर ठीक रास्ते पर ले आवेगा । इस प्रकार में इसके धर्म साधन में इसकी सहायक बन सकूगी ।" अपने मन मे इस प्रकार विचार करके उसने उस युवती से कहा 'सखी ! तू अपने मन में चिन्ता मत कर। मैं इस विषय में पूर्ण प्रयत्न करूंगी। किन्तु मैं तुझको यह अभी से बतलाए देती हूं कि तेरा मनचितित कार्य तो नहीं बनेगा; हां, इस प्रयत्न मे तेरा सुधार अवश्य हो जावेगा।' उस युवती से इस प्रकार कह कर वह सखी श्री सोहनलाल जी की दुकान पर पहुंची। वहा जाकर उसने उनसे जड़ाऊ हार दिखलाने को कहा । कई प्रकार के हार देख कर उसने उनसे कहा ____ "यदि आप यह आभूषण घर तक चल कर दिखला दें तो अति श्रेष्ट रहेगा। वह घर कोई पराया नहीं है, आपका ही है। श्राप उस घर मे सभी को जानते हैं।"
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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