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________________ १२. प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी सर्वन, इन्द्र आदि देवताओं द्वारा भी पूजनीय, खग चक्र त्रिशूल श्रादि हिंसा तथा भय के साधनों से रहित, स्त्री आदि कामवासना के साधनो से रहित, विस्मृति चिन्ह रहित, माला आदि से रहित, । चार घातिया कर्मों को नष्ट करके - अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य इन अनन्तचतुष्टय के धारक वीतराग भगवान् जिन ही सच्चे देव । होते हैं। सच्चे गुरु के अन्दर शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा आदि लक्षण का होना आवश्यक है। अव हम तुमको इन गुणों का वर्णन करके पृथक् २ बतलावेगे शम-जिस गुरु में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया लोभ का उपशम हो जावे अर्थात् जिसे अपराध करने वाले के ऊपर भी तीव्र कपाय उप्पन्न न हो उसे शम गुण का धारक माना जाता है। सग-संसार से विरक्त होकर अपने प्रात्म गुणों में । लीन रहना संवेग कहलाता है। - निवेद-विपय वासना से विरक्त रहते हुए विषयों को विप के समान समझ कर निरन्तर मोक्ष की अभिलाषा करते' । रहना निवंद है। अनुकरपा-किसी दु.खी के दु ख को देखकर हृदय में , दया उत्पन्न होना अनुकम्पा है। जिस व्यक्ति के मन में अनुकम्पा होतो है वह दुःखी जीवों को देखकर उनका दुख दूर . करने का यत्न करता है । वह दुखी जनों को देखकर स्वयं भी ।' दुःख करता है और अपनी शक्ति के अनुसार दुखियों के दुःख - को दूर करता है।
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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