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________________ सम्यक्त्व प्राप्ति ६१ ३-अभिनिवेशिक जो व्यक्ति अज्ञानवश सच्चे शास्त्र के अर्थ को भूल से उलटा कह जावे और पीछे जव कोई विद्वान् उसको बतलावे कि 'तुम इस विषय में भूल कर रहे हो तो अपनी भूल को जानते हुए भी असत्य पक्ष को हठ वश ग्रहण करे और जाति आदि के अभिमानवश सत्य कथन को जान कर भी उसको न माने तथा अपनी कपोलकल्पित कुयुक्तियां बता कर अपने मन माने अर्थ को सिद्ध करे और बाद में शास्त्रार्थ में पराजित हो जाने पर भी पराजय को न माने। इस प्रकार का मिथ्यात्व प्रायः गोष्टमहिलादि के समान निन्हवों का होता है। ४-संशयिक मिथ्यात्व। सर्वज्ञ के बतलाए हुए शास्त्रों में इस प्रकार संदेह करना कि आत्मा असंख्यात प्रदेशी है अथवा नहीं; देव, गुरु, धर्म, जीव, काल आदि पदार्थ सत्य है अथवा नहीं। ५-अनाभोगिक मिथ्यात्व जिन देवों को यह भी उपयोग नहीं कि धर्म, अधर्म क्या वस्तु है ऐसे एकेन्द्रिय आदि जीवों को देव मानना अनाभोगिक मिथ्यात्व है। जिस प्रकार पीपल को पूजना अथवा नाग को पूजना आदि। . हमने तुमको सम्यक्त्व को बतलाने के पूर्व मिथ्यात्व को इसलिये बतलाया है कि मिथ्यात्व को छोड़े बिना सम्यक्त्व को ग्रहण नहीं किया जा सकता। वास्तव में सच्चे देव में श्रद्धा करने से सच्चे गुरु तथा सच्चे धर्म में श्रद्धा स्वयमेव हो जाती है । अतएव तुमको प्रथम यथार्थं देव के लक्षण बतलाते हैं
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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