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________________ श्री समवशरण पूजन धीर वीर गंभीर शल्य मे रहित सयमी साधु महान । इनके पद चिन्हों पर चल कर तू भी अपने का पहचान ।। सम्यक दर्शन ज्ञान चरितमय लिया पथ निर्ग्रन्थ महान । सोलह वर्ष रहे छग्रस्थ अवस्था मे तीनो भगवान ।।२।। परम तपस्वी परम सयमी मौनी महाव्रती निजराज । निज स्वभाव के साधन द्वरा पाया तुमने निज पद राज ।।३।। शुक्ल ध्यान के द्वारा स्वामी पाया तुमने केवलज्ञान । दे उपदेश भव्य जीवो को किया सकल जग का कल्याण ।।४।। मै अनादि से दखिया व्याकल मेरे सकट दूर करो । पाप ताप सताप लोभ भय मोह क्षोभ चकचर कगे ।।५।। सम्यक दर्शन प्राप्त करूँ मै निज परिणति मे रमण करूँ। रत्नत्रय का अवलम्बन ले मोक्ष मार्ग का ग्रहया करूँ।।६।। वीतराग विज्ञान ज्ञान की महिमा उर मे छा जाए । भेद ज्ञान हो निज आश्रय मे शुद्ध आत्मा दर्शाए ।।७।। यही विनय हे यही भावना विषय कषाय अभाव करूँ । तुम समान मुनि बन हे स्वामी निज चेतन्य स्वभाव वरूं ।।८।। ॐ ह्री श्री शाति कुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय अयं नि स्वाहा । मृग अज, मीन चिन्ह चरणो मे प्रभु प्रतिमा जो करे नमन । जन्म जन्म के पातक क्षय हो मिट जाना भव दुख क्रन्दन । । रोग शोक दारिद्र आदि पापो का होता शीघ्र शमन । भव समुद्र से पार उतरते जो नित करने प्रभु पूजन ।। इत्याशीर्वाद जाग्य मत्र - ॐ ह्री श्री शाति कुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय नम । श्री समवशरण पूजन । तीर्थंकर प्रभु मोह क्षीणकर जब प्रगटाते केवलज्ञान । इन्द्र आज्ञा से कुबेर रचना करता स्वर्गों से आन ।। बारह सभा जहाँ जुडती है होता है प्रभु का उपदेश । ओकारमय दिव्य ध्वनि से पाते सभी जीव संदेश ।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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