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________________ जैन पूजॉजलि पर कतृत्व विकल्प त्याग कर, सकल्पों को दे तु त्याग । सागर की चचल तरंग सम तुझे डुबो देगी तू भाग ।। पुण्योदय से समवशरण अरू जिन मदिर मैंने पाया । अष्ट द्रव्य ले विनय भाव से पूजन करने को आया ।। श्री जिनवर के समवशरण को भाव सहित मै करूँ प्रणाम । वीतराग पावन मुद्रा दर्शनकर ध्याऊँ आठों याम ।। ॐ ह्री श्री समवशरण मध्यविराजमान जिनेन्द्रदेव अत्र अवतर अवतर सवौषट । ॐ ही श्री समवशरण मध्यविराजमान जिनेन्द्रदेव अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ।ॐ ही श्री समवशरण मध्यविराजमान जिनेन्द्रदेव अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । अष्टादश दोषो से विरहित अरहतों को नमन करूँ। अनुभव रस अमृत जल पीकर त्रिविधताप को शमन करूँ। जिन तीर्थंकर समवशरण को भाव सहित मै नमन करूँ। पूर्ण शुद्ध ज्ञायक स्वरूप मैं मोक्षमार्ग अनुसरण करूँ।।१।। ॐ ह्री श्री समवशरणमध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि। छयालीस गुण मडित प्रभुवर अहंतो को नमन करूँ। अनुभव रस चदन शीतल पा भवआतप का हरण करूँ ।। जिन ।।२।। ॐ ह्री श्री समवशरणमध्यविराजमान जिनेन्द्रदेवाय ससारतापविनाशनाय चदन नि । चार अनत चतुष्टय धारी अर्हतो को नमन करूँ। अनुभव रस मय अक्षत पाकर भवसमुद्र हरण करूँ ।। जिन ॥३॥ ॐ ही श्री समवशरण मध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि जन्म समयदश ज्ञानसमय दश अतिशययुत प्रभु नमन करूँ। अनुभव रस के पुष्प प्राप्तकर कामबाण का हनन करूँ ।। निज ।।४।। ॐ ह्री श्री समवशरण मध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि । देवोपम चौदह अतिशय सयुक्त देव को नमन करूँ। अनुभव रस नैवेद्य प्राप्तकर क्षुधारोग का हरण करूँ ।। जिन ॥५॥ ॐ ह्री श्री समवशरण मध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । अष्ट प्रातिहार्यों से शोभित अर्हतो को नमन करूँ। अनुभव रसमय दीपज्योति पा मोहतिमिर को हननकरूँ ।। जिन ।।६।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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