SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ जैन पूजांजलि मोह कर्म का जब उपशम हो भेद ज्ञान कर लो । भाव शुभाशुभ हेय जानकर सबर आदर लो ।। मैं यही कल्पना कर मन मे जिनवर को बदन करता हूँ। भावों की भेट चढा करके भव-भव के पातक हरता हूँ॥४॥ जो मुकुटबद्ध नृप होते वे, यह पूजन महा रचाते हैं । अपने राज्यो मे दान किमिच्छिक देते अति हर्षाते हैं ॥१॥ इसीलिए आजनिज वैभव से हे प्रभु मैने की है पूजन । शुभ-अशुभ विभाव नाशहो प्रभु कटजाये सभी कर्म बंधन ।।१०।। सर्वतोभद्र तप मुनि करते उपवास पिछत्तर होते हैं। बेला तेला चौला पचौला, उपवासादिक होते हैं ।।११।। पारणा बीच मे होती है पच्चीस पुण्य बहु होते है । सर्वतोभद्र निज आतम के ही गीत हदय मे होते है।।१२।। प्रभु मैं ऐसा दिन कब पाऊँ मुनि बनकर निज आतमध्याऊँ। ज्ञानावरणादिक अष्ट कर्म हर नित्य निरन्जन पद पाऊँ ।।१३।। घनघाति कर्मको क्षय करके अब निज स्वरुप मे जागा । सर्वतोभद्र पूजन का फल अरहत देव बन जाऊँगा ।।१४।। फिर मै अघातिया कर्म नाश प्रभु सिद्ध लोक मे जागा । परिपूर्ण शुद्ध सिद्धत्व प्रगट कर सदा-सदा मुस्काऊँगा ॥१५॥ ॐ ही श्री सर्वतोभद्र चतुमुखजिनेभ्यो पूर्णाष्य नि । सर्वतोभद्र पूजन महान जो करते है निज भावों से । भव सागर पार उतरते हैं बचते है सदा विभावो से । । इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र ॐ ह्री श्री सर्वतोभद्र चतुर्मखजिनाय नम श्री नित्यमह पूजन अरिहंतो को नमस्कार कर सब सिद्धों को नमन करूँ। आचार्यों को नमस्कार कर उपाध्याय को नमन करूँ।। अरिहंतो को न
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy