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________________ श्री सर्वतोभद्र पूजन आत्म स्वरूप अनुप भन्ठा इसकी महिमा अपरम्पार । इसका अवलंबन लेते ही मिट जाता अनंत संसार ।। मैं नित्य निरन्जन चिन्मय हूँ चिप चन्द्र गुणकारी हैं। मै अष्ट कर्म के नाश हेतु लाया पूजन की थाली हूँ सर्वतोभद्र ॥७॥ ॐ ह्रीं श्री सर्वतोभद्र चतुर्मुखजिनेभ्यो अष्टकर्मविश्वसनाय धूप नि । मैं चित्स्वरुप चिच्चमत्कार चैतन्यसूर्य गुणशाली हूँ। मै महामोक्ष फल पाने को लाया पूजन की थाली हूँ ॥सर्वतोभद्र. ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री सर्वतोभद्र चतुर्मुख जिने यो मोक्षफलप्राप्तये फल नि । मैं द्रव्य कर्म अरु भाव कर्म नोकर्म रहित गुण शाली हूँ। अनुपम अनर्थ्य पद पाने को लाया पूजन की थाली हूँ सर्वतोभद्र.।।९।। ॐ ह्री श्री सर्वतोभद्र चतुर्मुखजिनेभ्यो अनर्ष पद प्राप्तये आयं नि । जयमाला सर्वतोभद्र पूजन करके जिन प्रभु की महिमा गाता हूँ। चारों दिशि में अरहत चतुर्मुख वदन कर हर्षाता है॥१॥ प्रभु समवशरण में अतरीक्ष हैं रत्नमयी सिंहासन पर । त्रयछत्रशीश अतिशुभ धवल भामण्डल द्युति रवि से बढकर ॥२॥ है तरु अशोक शोभायमान हर लेता सर्व शोक गिन गिन। देवोपम दुन्दुभिया बजती सुर पुष्प वृष्टि होती छिन छिन ।।३।। मिलयक्षचमर चौसठ ढोरे प्रभु द्रिव्य ध्वनि खिरती अनुपम । वसु 'प्रातिहार्यों से भूषित जिनवर छवि सुन्दर पावनतम।।४।। वसु मगल द्रव्यों की शोभा जन जन का मन करती हर्षित । सम्यक्त्व उन्हे मिलता जिनके मन मे होती जिन छवि अकित ।।५।। है परमौदारिक देह अनन्त चतुष्टय से तुम भूषित हो । सर्वज्ञ वीतरागी महान निजध्यानलीन प्रभु शोभित हो ।।६।। जिन मन्दिर समवशरण का ही पावन प्रतीक कहलाता है । वेदी पर गधकुटी का ही उत्तम स्वरूप झलकाता है।।७।।
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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