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________________ (८३) से (मासमधु बगेरा समिलित वस्तु ) अतिथिके चित्तकी प्रसनता तो प्रत्यक्षसेहि देखी जाती है. और पितृगणकोभी वेदोक्त कथन पूर्वक श्राद्ध, मांस दिया जाता है जिससे वे भी वढे प्रसन्न होत हैं और इस प्रसन्नताके बदलेमें वे हमारे सतानकी रद्धि करते हैं यहयातभी साक्षात् देखनेमें आती है। वैसेहि देवताओंको सतुछ करने के लिये अश्वमेध-नरमेध (घोडा गौ और मनुप्यका मारना) आदि करनेकी विधि-जगह जगह पर मारे आगम शास्त्रों में देखी जाती है अतिथि के लिये जीवोंफो मारनेकाभी विधान " महोस वा महाजवा श्रोत्रियाय प्रकल्पयेत् " इयादिक अतिवाक्योंसे जाना है. पितृगणोंको सन्तुष्ट करनेके लियेभी नीचे मूत्र पाठ है. द्वौमासौ मत्स्यमांसेन, त्रीन मासान हारिणेनतु । औरप्रेणाणचतुर , शाकुनेनैवपञ्चतु ॥१॥ मतलप-मत्स्यके मांससे दो महिनेतक हिरणके, माससे तीन महिनेतक, मेढे मांससे चार महिनेतक, और पक्षीपोंके मांससे पांच महिनतक पिठगणको दृप्ति रहती है. जैन-वाइजी ! वाह ! ! खूब ! धर्मका रहस्य समन गये हो ! क्या हिंसाभी धर्महेतु वन सक्ती है । देखिरे ! अब मैं सुनाता हू जरा तवज्जह रजकरें ! आपको याद रहें ! हिसाकभी
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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