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________________ ( ८२ ) मांसभक्षका व जीव हिंसाका त्याग करना चाहिये। ऐसा बयान करते हुए भी धार्मिक समजी हुइ अपनी यज्ञ विधिमें मांस भक्षण तथा जीव वधको स्वीकृत रखते हैं। अफसोस है ! ऐसे मंतव्योंपर । जैमिनि क्यों ? अफसोस करना शुरु किया है ? अगर हमारी युक्तिको श्रवण करते तो इस तरह कभी न गभराते । देखिये, प्रथम आपको खयाल करना चाहिये कि कौनसी हिंसा बुरी और पालन जनक है. जरा खयाल दीजिये ! मेरी बातपर ? ___ कसाइ व शिकारीयोंकी तरह द्विभाव या व्यनसे किड हुइ हिंसा जुरी और पाप हेतु है परंतु जी यसमें जीव हिंसा कि जाती है इसमें कोई पाप नहीं है क्यों कि हमारा यह मान ना है कि " वेद विहिता हिंसा, अधर्म जनिका नभवति, धर्म हेतुत्वात्-यानि धर्म हेतु होनेसे वेदोक्त विधिसे किइ हुइ हिंसा अधर्मको पैदा करनेवाली नहीं होती है. वल्के धर्म हेतु है. क्योंकि वेद विहित हिंसासे देवता अतिथि तथा पितृ__ गंगोंको प्रीति पैदा होती है मेरा यहकथन व्यभिचार ग्रस्त नहीं है किन्तु अव्यभिचारी है क्योंकि कारीरी आदि यज्ञोंके करनेसे फौरन वृष्टि आती है इससे हम साफ कह सक्ते हैं कि यासे संतुष्ट हुए देवोका यह काम है बस इससे देवताओंको गीतिका होना खूब सावित होता है. बाद मधुपर्कके खिलाने
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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