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________________ ( ८४ ) धर्महेतु नहीं होसक्ती ! क्योंकि इसबातमें प्रत्यक्षतया वचना विराधे पाया जाता है. यतः हिंसा है तो फिर धर्म कैसे ? __ और धर्म है तो फिर हिंसा कैसे ? क्या ऐसाभी कमी होसक्ता है और वंध्यांभी है नहीं ! नहीं !! माता क्या और बंध्या क्यो-यह वात कवी नहीं वनसक्ती ! आपके माननेके मुताबिक हिंसा कारण है और धर्म उस्का कार्य है यहबातभी पाल भापितवत् संगति नहीं खाती है क्योंकि जो निस्के साथ अन्धयव्यतिरेक पणे अनुकरण कर्ता है वो उस्का कार्य हो सका है जैसे मृत् पिंडादिकका घटादिक कार्य होता है एसे धर्मशा अहिंसा कारण नहीं होसक्ती घटके लिये तो यह निश्चय हो चुका है कि मृत्तिकाके सिवाय और किसी पदार्थसे घट नहीं बन सकता. हिंसाके लिये यह नियम नहीं है यहीं धर्मका कारण बन सके ! क्योंकि एसा कहनेसे आपकेही शास्त्रमें माने हुए तपजप संयम नियमादिकोंको धर्मप्रति अकारणताका प्रसं. ग आवेगा! इसलिये हिंसाको छोडकर तपजप संयम नियमादिकोंकोहि धर्मका कारण मानना ठीक है, जौमिनि-दुसरेके मन्तव्योंको वगैरही समझे कुद पडना अकल मंदीमें दाखिल नहीं है हमकव कहते हैं कि सामान्य हिंसाधर्म हेतु है हमारा तो यह कहना है कि वेदविहित विशिहिंसा धर्मजनिका है नाकि तमाम हिंसा !
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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