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________________ (७०) नहीं ? अगर कहोगे करता है तो और क्रियाओंने आपका क्या विगाडा । है अगर कहोगे भुजी क्रियाकोभी नहीं कर्ता है तो फिर भोक्ता किस मकारसे मानते हो ? __सांख्य-हम आत्माको साधारण तोरपर भोक्ता मानते हैं नकि साक्षात् । मसलन स्फटिक रत्नके पास लाल-पीलानीला वगैरा जैसे रंगका फूल रखा जावे वैसाहि रंग उस स्फटिक रलपर प्रतिविम्वितहो जाता है। मतलब उसवक्त उस स्फटिक रत्नका मूलरंग नहीं पहिचाना जाता है, मगर असल स्फटिक रत्नका जो रंग होगा सोहि लिया जायगा नकि उपा. वि जन्य । इसी तरहसे वस्तुतः आत्मा भोक्ता नहीं है; मगर चित्के सानिध्यसे जन पदार्थ बुद्धिमें प्रतिविम्बित होते हैं, तब वेहि पदार्थ जाकर आत्मामें प्रतिविम्बित होते हैं, उस वक्त आस्मा भ्रांतिसे यह समझने लग जाता है कि "अहं भोक्ता" यानि मैं सुख दुःखोका भोगने वाला हूँ । वस, इस रीत्यानुसार हम आत्माको भोक्ता समझते हैं नकि वस्तुतः । जैन-जब आप आत्माको वस्तुतः भोक्ताहि नहीं मानते हो तो उसे भोक्ता कहना आपका वृथा हठवाद है । वाद आपने साधारण तोरपर इसे भोक्तासिद्ध करनेके लिये स्फटिक रत्नकी मिसाल दी मगर यहभी आपका इष्ट साध नहीं सक्ती है। क्योंकि स्फटिकमेंभी एक किस्मका परिणाम रहता है तो फूलका पति
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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