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________________ (७१) विम्ब हो सकता है वरना कभी नहोता । देखिये, अघ पथ्थरके पास मरजी चाहे वैसा फल क्या रखा जाने उस्में प्रतिम्यि हरगिज न पडेगा, इससे सावित होता है कि स्फटिकमेंभी इस किस्मके परिणामकी हस्ति होने परहि फूल प्रतिविम्बित हुआ परना कैसे होता' बस, इसी तरह आत्माकोभी परिणामसे भोक्ता मानना पडेगा, जो भोक्ता है वो कर्ताभी जरूर रहोगा। सारय-किसी कदर भोक्ता हो सकता है, मगर कर्ता नहीं बन सकता। जैन-याद रखना सन् मित्र । जो कर्ता नहीं होगा वो भोक्ताभी कभी न हो सकेगा। देखिये, दलील यह है ससारी आत्मा मुक्तात्माकी नरह कर्ता नहीं होनेसे भोक्ताभी नहीं हो सक्ता है। तथाहि मसार्यात्मा, भोक्तान भाति, अकतृत्वात् । मुक्तात्मवत् । मतव्य-उसी इमारतमें हलहो चुका है। अगर अफर्ता कोहि भोक्ता मानोगे तो तुम्हारे मतमें कृतनागा ताभ्यागम रुपदोपमा प्रसग आगा। (मतन्य किये हए कमाका नाश और नहीं किये हुएका आगमन होगा)
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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