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________________ (४८) हुए दूषण इनके मत रुप दीवारको दीमककी तरह खा रहेहैं। देखिये, प्रथम दृपण यह बडा भारी है कि, इनके मतमें किये हुए शुभाशुभ कर्मका फल नहीं मिलता। क्योंकि प्रथम क्षण अपने कालमें शुभाशुभ कर्म करता है । जब उरके भोगनेका समय आता है, तो वो अण विचारा नष्ट हो जाता है। कहिये, अब क्षण कालमें बंधन किया हुआ कर्म कहाँ भोगेगा ? इस लिये कृत कर्म नाश नामका प्रथम दूषण है। बौद्ध-अगर हम उसी क्षणमें उस्ने कर्मका बंध और भोग दोनोंही कर लिये गानेंगे तो फिर आप क्या कहेंगे. ? जैन-सन् मित्र ! यह बात नहीं बनसक्ती कि एक. क्षणमें बंध और भोग दोनोंही करलें । अगर आप इस बातको मान लेवें तोभी आपकी इच्छा पूर्ण नहीं होसक्ती । क्योंकि एक बुद्धिका क्षण अपने अन्त होनेके वक्तपर तरवार लेकर किसीका गला काट देवे और उस आदमीके साथही बो नष्ट होजावे । बतलाइये, ऐसे मौकेपर आदीर में किये हुए बुरे कर्मका फल वो क्षण कहाँ भोगेगा ? और ऐसा तो आप कहही नहीं सक्ते कि, अखीरी रक्तपर को शुभाशुभ काम नहीं करताहै । अगर कहोगे सूक्ष्यकाल होनेके सबसे शुरु आखिर वगेरः व्यवहार नहीं होता, तो क्स, फिर हमाराही कथन सिद्ध हुआ कि वो अल्पकाल होनेके सववसे कर्म बंध
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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