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________________ ( २९८) ३० परचक्रका भय नही होता. ३१ अति दृष्टि नही होती. ३२ अनादृष्टि नही होती. ३३ दौर्भिक्ष नही पड़ता. ३४ इनमेंसे अगर पहिले होंभी तो प्रभुके पधारनेसे _ नष्ट हो जाते हैं. ये बातें सर्व प्रभुके अतिशयसे अपने आप होती है. येही सर्वज्ञ भगवान साकार ईश्वर कहे जाते हैं तथा हे महानुभावों ! उन्हीके वचन अपने आप समझे जाते हैं. यज्ञ-हे भगवान् ! यह काय परसे कह सक्ते हैं कि जैनने जिनको देव मान रखे हैं उन्हीके वचन आप्त हैं औरके नही ? सूरि-हे भाई ! वे परमात्मा सर्वज्ञथे, उनको किसीसे सिखनेकी जरूरत नही रहतीथी, उन्हे तो स्वयमेव सर्व मआलुम पड़ जाताथा वास्ते उन्हीके वचन आप्त हो सक्ते हैं औरके नही. यज्ञ-गुरुवर्य ! यह काय परसे कह सक्ते हैं कि आपके ईस्वर ही सर्वज्ञथे और वाकी नही ? सरि-हे भाई ! हम पहिले ही कह चुके हैं कि जो १८ दूषण करके रहित होते हैं सोही ईस्वर हैं फिर चाहे वो कोई हो ईससे हमे मतलब नही.
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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