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________________ (०६५) ईश्वरके होनेकी जो सासी दी है, उसको हमें क्यों कर अगी कार न करना चाहिये ? सूक्ष्मदर्शकसे देखने वालोंका __ कथन तो अपन मान ले और ज्ञानचायुसे देखने वालोंका कथन नहीं माने तो इसे यदि अपना दुराग्रह नहीं तो क्या कहा जाय? दुर्भान या सूक्ष्मदर्शक यन पास न हो तो खटपट करके उसे कहींसे राना पडता है, अयरा परदेशसें मगाना पड़ता है, उसी प्रकार जो अपने ज्ञानचक्षु न हो तो उन्हें भी यथो. चित प्रयत्न द्वारा प्राप्त करलेना अत्यावश्यक है । दुर्वीन या सूक्ष्मदर्शक मौजुट होने परभी उससे देखनेका जिसे विलकुल अभ्यास ही नहीं है. उसे चन्द्रादि सम्बधी हाल कुछ भी दिखाई नहीं देता है । इसी प्रकार ईश्वरको देखनेके जो साधन शास्त्रोंमें प्रसिद्ध है उनका ठोक २ अभ्यास किये बिना ईश्वर सम्बधी पातोका अनुभव कदापि नहीं हो सकता है पुर्व पालसे सत्पुरुप उन साधनोरा बोध कराते आये है। उनमें कद्दन अनुसार कुछभी न करके ऐसे प्रश्न करना कि टेश्वर कहा है ? यदि ईश्वर हो तो हमें बताओ ' इत्यादि सब चाते जान बूझकर एक प्रकारके अजानपनेकी नहीं तो क्या कहना चाहिये ? सचमुच ये बातें ऐसी ही समझी जा सकती है जैसे एक गगार मनुष्य किसी कालेजमें आकर प्रोफेसर से कहे कि" मुझे दिया पटा कर अभी एक अच्छी पदवी
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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