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________________ ( १८१ ) चितया नश्यते रूप चितया नश्यते क्लम् । चितया हर्य ते ज्ञानं व्याधिर्भवति चितया ।। __ अर्थ-चिन्ता करनेसे रूपका नाश होता है, चिन्तासे बल नष्ट होता है, चितासे ज्ञान मद होता है और अनेक मकारकी व्याधि उत्पन्न करने वाली यह चिन्ता है। चिन्ता बडी अभागनी, पडी कालजा खाय । रती २ भर सवरे, तोला भर २ जाय ॥१॥ चिन्तासे चतुराई घटे, चिन्ता बुरी अथाग।। मोनर जीवित भृतही है, ज्या घट चिन्ताआग ।।२।। शरीरका नुकसान-शरीरका बयान इस प्रकार है कि अहार तथा विहार बरावर रहा वहातक तनदुरुस्ती ठीक रहती है परन्तु इसमें जरा फेरफार हुआ कि तुरन्तही शरीरमें रोग पैदा होगा जितना विकार अपने बीमार शरीरमसे निकलता है उससे ज्यादा जो निकाल लें तो रोगीका शरीर क्षीण और दुर्वल होजाता है. वैद्यकशास्त्र कहता है कि कान और अखि के बीच रहेहुवे भागमें (कनपटीमें) दो पुका होते है उसमें लोहीमके पानीका भाग कितनीक पार जुदा पडता है वह खारा पानी आखफे रस्ते बहार निकलता है उसको अपन आम कहते हैं भय, शोक, क्रोध, प्रीति, शूर वगैर. मनोर
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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