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________________ ( १७१) ता नाहक कर्म बधाताहै और उससे दूसरे भवमें तिर्यगादि गति प्राप्त होती है इसलिये इस आर्त ध्यानको त्यागनेकी तमवीनमें सत्पुरपोंको प्रयत्न करना चाहिये ऐसा शास्त्रकार सबन्यमायमूल बज्जेय पयतेण १८ अर्थात् आर्त भ्यान सर्व दु साका मल , इस लिये प्रय न्नसे उसरा त्याग ही करना चाहीये नहोत पिचार फरासे मालूम होता है कि गर्द वस्तुका शोर रना यह मूर्मनाके लक्षण है एक वक्त भोज राजाको कारिदास करिने फटाया कि गत न शोचामि कुन न मन्ये खाद नगच्छामि हस न्न जल्ये द्वाभ्या तृतीयो न भवामि राजन कि कारण भोज भवामि मूर्ख ॥ अर्थ-मै गई नस्तुका पाक नहीं बरता, रि हुई पातका विचार नहीं करता, खाते खाते नहीं चलता, इसते २ नही बोलना, दो मनुष्य इमान्तमे पात करते हो तो मै तीसरा यहा शामिल नहीं होता, तो भोगराग' आपने मुझे मूर्व कहकर
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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